SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नन्दी सूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन २६३ “ज्ञानस्य फलं विरतिः ।” सम्यक् ज्ञान जब अन्तर में स्थिर हो जाता है, सुदृढ़ हो जाता है, व्यक्ति उक्त ज्ञान को आत्मा - अनात्मा के भेदविज्ञान को हृदयंगम कर लेता है, तब उसके कारण पर - पदार्थों के प्रति, विभावों के प्रति उसकी स्वभावतः विरति हो जाती है । उसकी आत्मा प्रत्येक सजीव-निर्जीव पर-पदार्थ को जरूरत पड़ने पर अपनाता है, किन्तु उसके प्रति राग, द्वेष, मोह, आसक्ति या घृणा नहीं रखकर ज्ञाता - द्रष्टा बना रहता है। ज्ञान-बल के कारण उसका कषायभाव अत्यन्त मन्द या क्षीण हो जाता है। प्रसिद्ध सत्योपदेष्टा ज्ञानी सुकरात को उस समय की सरकार के द्वारा जनता और खासकर युवकों को सत्य बात कहने-सिखाने के कारण मृत्यु - दण्ड दिया जाना था । विष का प्याला उनके सामने रखा गया । उनके कुछ हितैषी मित्रों व शिष्यों ने उनको विषपान न करने के लिए बहुत समझाया। परन्तु सुकरात ने कहा- "मैं मानता हूँ कि आत्मा कभी नष्ट नहीं होती, वह अविनाशी है तो विषपान करने में क्या हर्ज है ? यदि कहें कि आत्मा नाम की कोई चीज नहीं है, केवल यह शरीर है, तो यह शरीर नाशवान् है, एक न एक दिन नष्ट होने वाला है, फिर अपने सत्य ( सिद्धान्त) पर दृढ़ रहने के लिए मुझे नाशवान् शरीर को छोड़ना पड़े तो क्या आपत्ति है ? यों कहकर सुकरात ने विष का प्याला पी लिया । यह था ज्ञान-बल के कारण सिद्धान्त पर दृढ़ता। इसलिए सुकरात कहता था - "Knowledge is Virtue. " - ज्ञान अपने आप में चारित्रगुण है - आचरणात्मक है । उपाध्याय यशोविजय जी कहते थे- ज्ञान की तीव्र दशा ही चारित्र है। अर्थात् ज्ञान पर जब दृढ़ निष्ठा होती है, तब व्यक्ति बड़े से बड़े संकट, राग, द्वेष, मोह आदि के प्रसंग पर ज्ञानगुण को आचरण में लाता है । २२ ज्ञानगुण में श्रद्धा-भक्ति विनयपूर्वक स्थिर रहता है, ज्ञाता - द्रष्टा भाव (ज्ञायक भाव ) से विचलित नहीं होता । इस प्रकार का भेदविज्ञानरूप दृश्य ही चारित्र है । तथागत बुद्ध ने जेतवन में एक लकड़हारे को लकड़ी काटते हुए देखा, तो उसी समय उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाकर पूछा - "यह लकड़हारा कुल्हाड़ी से जो चोट कर रहा है क्या उसकी वेदना तुम्हें होती है ?" शिष्यों ने मुस्कराते हुए कहा - "नहीं, भन्ते !" गौतम बुद्ध ने कहा - "हे शिष्यो ! इसी प्रकार इस शरीर को भी कोई काटे या चोट पहुँचाए तो वृक्ष की तरह इस शरीर को भी पराया समझे। अर्थात् शरीर पर भी कुल्हाड़ी से कोई चोट मारे तो पराये वृक्ष पर होने वाली चोट के समान समझो, क्योंकि पंच महास्कन्ध से तुम (आत्मा) अलग हो । आत्मा - अनात्मा का For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy