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* २२ * मूलसूत्र : एक परिशीलन अध्ययन में प्रश्नोत्तर शैली है, जो परिनिर्वाण के समय सम्भव नहीं है। क्योंकि कल्पसूत्र में उत्तराध्ययन को अपृष्ठ व्याकरण अर्थात् बिना किसी के पूछे कथन किया हुआ शास्त्र कहा है।
कितने ही आधुनिक चिन्तकों का यह भी अभिमत है कि उत्तराध्ययन के पहले के अठारह अध्ययन प्राचीन हैं और उसके बाद के अठारह अध्ययन अर्वाचीन हैं। किन्तु अपने मन्तव्य को सिद्ध करने के लिए उन्होंने प्रमाण नहीं दिये हैं।
कितने ही विद्वान यह भी मानते हैं कि अठारह अध्ययन तो अर्वाचीन नहीं हैं। हाँ, उनमें से कुछ अर्वाचीन हो सकते हैं। जैसे-इकतीसवें अध्ययन में आचारांग, सूत्रकृतांग आदि प्राचीन नामों के साथ दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ-जैसे अर्वाचीन आगमों के नाम भी मिलते हैं।४६ जो श्रुतकेवली भद्रबाहु द्वारा निर्दृढ़ या कृत हैं।४७ भद्रबाहु का समय वीर निर्वाण की दूसरी शती है, इसलिए प्रस्तुत अध्ययन की रचना भद्रबाहु के पश्चात् होनी चाहिए।
अन्तकृद्दशा आदि प्राचीन आगम साहित्य में श्रमण-श्रमणियों के चौदह पूर्व, ग्यारह अंग या बारह अंगों के अध्ययन का वर्णन मिलता है।४८ अंगबाह्य या प्रकीर्णक सूत्र के अध्ययन का वर्णन उपलब्ध नहीं होता। किन्तु उत्तराध्ययन के अट्ठाईसवें अध्ययन में अंग और अंगबाह्य, इन दो प्राचीन विभागों के अतिरिक्त ग्यारह अंग, प्रकीर्णक और दृष्टिवाद का उल्लेख उपलब्ध होता है।४९ अतः प्रस्तुत अध्ययन भी उत्तरकालीन आगम-व्यवस्था की संरचना होनी चाहिए। __ दूसरी बात यह है कि अट्ठाईसवें अध्ययन में द्रव्य,५० गुण,५१ पर्याय५२ की जो संक्षिप्त परिभाषाएँ दी गई हैं, वैसी परिभाषाएँ प्राचीन आगम साहित्य में उपलब्ध नहीं हैं। वहाँ पर विवरणात्मक अर्थ की प्रधानता है, अतः यह अध्ययन अर्वाचीन प्रतीत होता है।
दिगम्बर साहित्य में उत्तराध्ययन की विषय-वस्तु का संकेत किया गया है वह इस प्रकार है
धवला में लिखा है-उत्तराध्ययन में उद्गम, उत्पादन और एषणा से सम्बन्धित दोषों के प्रायश्चित्तों का विधान है५३ और उत्तराध्ययन उत्तरपदों का वर्णन करता है।५४
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