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उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन *२१ *
छत्तीस अध्ययनों के रूप में संकलित हो चुका था। समवायांगसूत्र में छत्तीस उत्तर अध्ययनों के नाम उल्लिखित हैं। विषय वर्गीकरण
विषय-वस्तु की दृष्टि से उत्तराध्ययन के अध्ययन धर्मकथात्मक, उपदेशात्मक, आचारात्मक और सैद्धान्तिक, इन चार भागों में विभक्त किये जा सकते हैं। जैसे
(१) धर्मकथात्मक-७, ८, ९, १२, १३, १४, १८, १९, २०, २१, २२, २३, २५ और २७
(२) उपदेशात्मक-१, ३, ४, ५, ६ और १० (३) आचारात्मक-२, ११, १५, १६, १७, २४, २६, ३२ और ३५ (४) सैद्धान्तिक-२८, २९, ३०, ३१, ३३, ३४ और ३६
विक्रम की प्रथम शती में आर्यरक्षित ने आगमों को चार अनुयोगों में विभक्त किया। उसमें उत्तराध्ययन को धर्मकथानुयोग के अन्तर्गत गिना है।४३ उत्तराध्ययन में धर्मकथानुयोग की प्रधानता होने से जिनदासगणी महत्तर ने उसे धर्मकथानुयोग माना है,४४ पर आचारात्मक अध्ययनों को चरणकरणानुयोग में और सैद्धान्तिक अध्ययनों को द्रव्यानुयोग में सहज रूप से ले सकते हैं। उत्तराध्ययन का जो वर्तमान रूप है, उसमें अनेक अनुयोग मिले हुए हैं।
कितने ही विद्वानों का यह भी मानना है कि कल्पसूत्र के अनुसार उत्तराध्ययन की प्ररूपणा भगवान महावीर ने अपने निर्वाण से पूर्व पावापुरी में की थी। इससे यह सिद्ध है कि भगवान के द्वारा यह प्ररूपित है, इसलिए इसकी परिगणना अंग-साहित्य में होनी चाहिए। उत्तराध्ययनसूत्र की अन्तिम गाथा को कितने ही टीकाकार इसी आशय को व्यक्त करने वाली मानते हैं“उत्तराध्ययन का कथन करते हुए भगवान महावीर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए।" यह प्रश्न काफी गम्भीर है। इसका सहज रूप से समाधान होना कठिन है। तथापि इतना कहा जा सकता है कि उत्तराध्ययन के कितने ही अध्ययनों की भगवान महावीर ने प्ररूपणा की थी और कितने ही अध्ययन बाद में स्थविरों के द्वारा संकलित हुए। उदाहरण के रूप में-केशी-गौतमीय अध्ययन में श्रमण भगवान महावीर का अत्यन्त श्रद्धा के साथ उल्लेख हुआ है। स्वयं भगवान महावीर अपने ही मुखारविन्द से अपनी प्रशंसा कैसे करते? उनतीसवें
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