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________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * २६१ * कर लिया था। इसीलिए जैनदर्शन ने और तीर्थंकरों ने ज्ञान को आत्मिक शक्ति रूप माना है। भौतिक ज्ञान-शक्ति से आध्यात्मिक ज्ञान-शक्ति का चमत्कार बढ़कर है __ वैसे ही अंग्रेजी साहित्य के प्रसिद्ध निबन्धकार 'बेकन' ने लिखा है"Knowledge is Power."-ज्ञान ही शक्ति है। आज वैज्ञानिकों द्वारा किये गये रेडियो, टी. वी., वायरलेस, कम्प्यूटर, टेलीफोन, टेलीपैथी, वायुयान, जलयान, रोबोट आदि एक से एक बढ़कर आविष्कारों, भौतिक ज्ञान-शक्ति का ही चमत्कार है। भौतिकविज्ञान की शक्ति के प्रसिद्ध आविष्कारक ने कहा थापानी की बूंद को ध्वनि तरंग द्वारा तोड़कर इतनी शक्ति उत्पन्न व संचित हो सकती है कि उसके द्वारा सारे न्यूयार्क शहर को सालभर तक बिजली सप्लाई की जा सकती है। एक ग्लास पानी के द्वारा इतनी ऊर्जा शक्ति पैदा की जा सकती है कि उससे 'क्वीन मेरी' नाम की चार पाँखों वाली २५ हजार टन की स्टीमर छह महीने तक लगातार चलाई जा सकती है। यह है भौतिक ज्ञान-शक्ति का चमत्कार ! आध्यात्मिक ज्ञान-शक्ति का चमत्कार तो इससे भी कई गुना बढ़कर है। केवलज्ञान की अगाध अपरिमेय एवं अनन्त शक्ति इतनी प्रबल है कि उससे तीनों लोकों की, तीनों काल की, चराचर जगत् की प्रत्येक बात युगपत् जानी जा सकती है। जानी क्या जा सकती है, उनके केवलज्ञानरूपी दर्पण में प्रति समय झलकती रहती है। अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान भी अतीन्द्रिय (मन और इन्द्रियों की सहायता के बिना जाने जा सकने वाले) ज्ञान हैं, जिनसे भी काफी सीमा तक का त्रैकालिक ज्ञान हो जाता है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान यद्यपि मन और इन्द्रियों की सहायता से होते हैं, तथापि इनसे भी पूर्व-जन्म का ज्ञान, समस्त शास्त्रीय ज्ञान, प्रातिभ ज्ञान, चौदह पूणे तक का ज्ञान हो सकता है। आध्यात्मिक ज्ञान की शक्ति भी इतनी जबर्दस्त है कि जिन पूर्वो का पारायण करने में सामान्य व्यक्ति को कई वर्ष लग सकते हैं, उनका पारायण श्रुतकेवली अथवा कतिपय पूर्वधर एक मुहूर्त में कर सकते हैं। यह ज्ञान-शक्ति का ही चमत्कार है कि उच्चतम देवलोकों के देव तथा अनुत्तर विमानवासी देव अपने मन की शंका का समाधान तीर्थंकर या केवलज्ञानी के पास गये बिना ही उनसे मन ही मन से प्राप्त कर लेते हैं। इस युग में भी ऐसे कई ब्रह्मचर्यनिष्ठ ज्ञानी हुए हैं, जिनकी स्मरण-शक्ति, अवधान-शक्ति बड़ी तीव्र थी और है। पदानुसारिणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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