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________________ * २६० * मूलसूत्र : एक परिशीलन उसने चीनी भाषा का अध्ययन शुरू किया। ज्ञान के तीव्र रस में निमग्न होने से वह मृत पत्नी की मृत्यु का आघात भी चीनी भाषा का ज्ञान होने पर भूल गया। ___ यह है, ज्ञान को आनन्दरूप मानने का रहस्य; जिससे अनेक विद्वानों, मनीषियों और विचारकों ने ज्ञानानन्द को अपूर्व आनन्द का स्रोत माना है।८ योगी श्री आनन्दघन जी ने कहा है-"ज्ञानानन्दे हो पूरण पावनो।" अर्थात् ज्ञानानन्द से मनुष्य पूर्णतः पावन बनता है। इसीलिए नन्दीसूत्र में आनन्दरूप ज्ञान का सांगोपांग वर्णन है। इसीलिए पंचाध्यायी में ज्ञान को सुखादि से अभिन्न माना है।९ ज्ञान आत्म-शक्तिरूप है जो बल हजार हाथियों में नहीं होता, ऐसा बल ज्ञान में होता है। जिसके पास सम्यक् ज्ञान की प्रचण्ड शक्ति होती है, वह बड़ी से बड़ी विपत्ति आने पर नहीं घबराता, प्राणों का संकट आने पर या प्रतिकूल परिस्थिति होने पर जरा-सा भी विचलित नहीं होता। ज्ञान-बल से वह बड़ी से बड़ी विपत्ति से पार हो जाता है। अज्ञानी मनुष्य जरा-सी विपत्ति, प्रतिकूल संयोग या परिस्थिति आ पड़ने पर घबरा जाता है, सिद्धान्त से विचलित हो जाता है, वहाँ ज्ञान-बली अपने सिद्धान्त पर डटा रहता है। वह आर्त्त-रौद्रध्यान के वशवर्ती न होकर धर्म-शुक्लध्यान के प्रवाह में संलीन रहता है। सहन शक्ति के प्रभाव से वह राग, द्वेष, द्रोह, मोह, आसक्ति, घृणा आदि द्वन्द्वों से दूर-दूर रहकर ज्ञाता-द्रष्टा बना रहता है। भरत चक्रवर्ती ने शीशमहल में कौन-से व्रत-महाव्रत का आचरण किया था? उन्होंने स्व-पर के भेदविज्ञान की उज्ज्वल व दृढ़ शक्ति के आधार पर ही केवलज्ञान प्राप्त कर लिया था। यह ज्ञान-शक्ति का प्रभाव था कि मरुदेवी माता ने परभावों और मोहादि विभावों का ज्ञान-शक्ति के बल पर उच्छेद करके केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त कर लिया था। गजसुकुमार मुनि ने ध्यानावस्था में सोमिल ब्राह्मण द्वारा मस्तक पर धधकते हुए खैर के अंगारे रख दिये जाने पर भी शरीरादि पर राग और सोमिल पर द्वेष न करके आत्म-ज्ञान-शक्ति के बल पर मोक्ष प्राप्त कर लिया था। ध्यानस्थ प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने ज्ञान-शक्ति का आश्रय लेकर कुछ ही देर पहले कषायावेश से बद्ध कर्मों को काटकर आत्मा को परम उज्ज्वल बना लिया था। अर्जुन मुनि ने ज्ञान-शक्ति के आश्रय से ही परम समभाव रखकर सिर्फ ६ महीने में अपने पूर्वबद्ध अशुभ कर्मों को नष्ट करके केवलज्ञान और मोक्ष प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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