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* २५८ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
ज्ञान जीवन का सर्वोपरि तत्त्व है, वह जीवन का बहुमूल्य धन है। सभी प्रकार की भौतिक सम्पत्तियाँ तो यहीं समय पर नष्ट हो जाती हैं, किन्तु ज्ञानरूपी आध्यात्मिक सम्पत्ति इस भव में, दोनों भवों में, हर स्थिति में साथ रहती है। ज्ञान जीवन का वह प्रकाश है, जो सभी द्वन्द्वों, उलझनों और अन्धकारों की कारा से मनुष्य को निकालकर शाश्वत पथ पर अग्रसर करता है। ज्ञान स्वयं ही शाश्वत धन है। इसीलिए सर डब्ल्यू. टेम्पिल ने लिखा है-"ज्ञान ही मनुष्य का परम (अभिन्न) मित्र है और अज्ञान ही उसका परम शत्रु है।'' शेक्सपियर ने भी कहा है-"ज्ञान ही प्रकाश है और अज्ञान ही अन्धकार है।' प्रसिद्ध दार्शनिक प्लेटो ने कहा है-“अज्ञान ही समस्त बुराइयों/विपत्तियों की जड़ है।"१४ जीवन की समस्त विकृतियों और विपदाओं का कारण अज्ञान है। यह जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है जबकि ज्ञान जीवन का सर्वोत्तम वरदान है। भगवद् गीता में कहा है-“ज्ञान के सदृश संसार में कोई पवित्र तत्त्व नहीं है।'१५ ज्ञान ही जीवन का सारभूत तत्त्व है।
देखा गया है कि कई मनुष्यों के पास सुख-सुविधापूर्ण जीवन बिताने के पर्याप्त साधनों के होते हुए भी वे अपने अज्ञान, अवधिा और मिथ्या ज्ञान (मिथ्यात्व) के कारण अशान्त, संतप्त और उद्विग्न रहते हैं, तनाव से ग्रस्त रहते हैं। इसलिए अज्ञान और अविद्या के कारण ही समाज में समस्त विकृतियाँ, बुराइयाँ एवं शारीरिक-मानसिक अस्वस्थताएँ पैदा होती हैं। अतः उनके निवारण के लिए सम्यक् ज्ञान ही एक मात्र स्व-पर-प्रकाशक होने से अत्यन्त आवश्यक है। ज्ञान और दर्शन दोनों का प्रकाश साधनामय जीवन के लिए अत्यावश्यक समझने हेतु नन्दीसूत्र में इसी की चर्चा की गई है।६ ज्ञान आनन्दमय है, अव्याबाध सुखरूप है
ज्ञान आनन्दमय है, क्योंकि ज्ञान आत्मा का निजी गुण है और अव्याबाध आत्मिक सुख (आनन्द) भी आत्मा का गुण है। किन्तु वह ज्ञान के अन्तर्गत ही आ जाता है। जब मनुष्य को सद्ज्ञान प्राप्त होता है तो उसे अपूर्व आनन्द की प्राप्ति होती है। उपाध्याय यशोविजय जी और विनयविजय जी वाराणसी में एक ब्राह्मण पण्डित के पास अध्ययन करते थे। दोनों की बुद्धि अत्यन्त प्रखर थी। इन पण्डित जी के पास नव्य-न्याय का एक महामूल्य ग्रन्थ था। इन दोनों अध्ययनार्थियों के बार-बार आग्रह करने पर भी १,२०० श्लोकों का वह अद्भुत ग्रन्थ पण्डित जी बताते नहीं थे। एक बार पण्डित जी किसी कार्यवश
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