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* २५६ * मूलसूत्र : एक परिशीलन नन्दी शब्द : प्रस्तुत में भाव-समृद्धि का सूचक
'टुनदि क्रिया' समृद्धि अर्थ की सूचक होने से नन्दी का निर्वचन होना- “जो स्वयं समृद्धि रूप हो अथवा जिससे समृद्धि प्राप्त हो, वह नन्दी है।" लौकिक
और लोकोत्तर दोनों क्षेत्रों में समृद्धि सबको आनन्द एवं प्रमोद देने वाली होती है। समृद्धि पाकर मनुष्य ही क्या देव भी प्रसन्न होते हैं। ___ वह समृद्धि दो प्रकार की होती है-द्रव्य-समृद्धि और भाव-समृद्धि। चल-अचल सम्पत्ति, रत्न, मणि, मुक्ता तथा बहुमूल्य वस्त्र एवं अन्य सुखोपभोग के साधन तथा विनयी एवं आज्ञाकारी स्त्री, पुत्र, पौत्रादि परिवार इत्यादि सब द्रव्य-समृद्धि में परिगणित होते हैं। ऐसी द्रव्य-समृद्धि की प्राप्ति सांसारिक प्राणियों के लिए आनन्ददायिनी एवं आमोद-प्रमोदकारिणी होती है। परन्तु सांसारिक विषय सुखोपभोगों तथा पर-पदार्थों से विरक्त, निःस्पृह एवं उदासीन साधक वर्ग को भाव-समृद्धि ही आनन्दप्रदायिनी होती है। भाव-समृद्धि वह है, जिसे पाकर आत्मा आनन्द का अनुभव करे, आत्मा में क्षमा, दया, सन्तोष, मृदुता, ऋजुता आदि या ज्ञानादि रत्नत्रयगुण प्रकट हों। आत्मा के निजी गुण चार हैं-अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त अव्याबाध सुख (आनन्द) और अनन्त बलवीर्य (आत्मिक शक्ति)। इन चारों गुणों का सघन रूप से, सम्यक् रूप से प्राप्त होना भी भाव-समृद्धि की प्राप्ति है। सम्यक् ज्ञान में ही आत्म-गुणरूप भाव-समृद्धि चतुष्टय निहित
मनुष्य की अन्तरात्मा में ये ज्ञानादि चारों भाव-सम्पदाएँ निहित हैं। एक दृष्टि से देखा जाय तो ये चारों भाव-सम्पदाएँ आत्मा की भाव-समृद्धि हैं। सम्यक् ज्ञान में ही ये चारों भाव-समृद्धियाँ निहित हैं, इसी तथ्य को दृष्टिगत रखकर इस शास्त्र का नाम 'नन्दीसूत्र' रखा गया है। एक मात्र ज्ञान (अनन्त सम्यक् ज्ञान) में ही ये चारों प्रकार की आत्म-गुण समृद्धियाँ समाविष्ट हो जाने से इसका अन्वर्थक नाम नन्दीसूत्र रखा गया है। इस दृष्टि से नन्दीसूत्र का तात्पर्यार्थ होगाचारों प्रकार की आत्म-गुण समृद्धियों के सूचक ज्ञान का जिस आगम में सर्वतोमुखी सांगोपांग वर्णन हो। इसी आशय से नन्दीसूत्र में आत्मा की मूलभूत समृद्धियों के सूचक ज्ञान का विस्तृत वर्णन किया गया है। ज्ञान में चारों प्रकार की आत्म-गुण समृद्धियाँ समाविष्ट
प्रश्न होता है-ज्ञान में चारों प्रकार की आत्म-गुण समृद्धियाँ निहित हैं, यह कैसे जाना जाये ?
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