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नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * २५५ * -.-.-.-.-.-.-.-.-.प्रत्यक्ष ज्ञान कितने हैं ? ज्ञान के विविध प्रकारों के लक्षण क्या-क्या हैं ? वे किस-किस प्रकार से प्राप्त होते हैं ? सम्यक् ज्ञान और मिथ्या ज्ञान (अज्ञान) कितने हैं ? उनके क्या-क्या लक्षण हैं ? ज्ञान के मुख्य स्रोत रूप आगम कितने हैं ? आगमों तथा ज्ञान के, श्रुत के प्ररूपक, उपदेश, रचयिता कौन-कौन हैं या हुए हैं ? आप्त और आगम का लक्षण क्या-क्या है ? इत्यादि ज्ञान से सम्बन्धित सांगोपांग वर्णन नन्दीसूत्र के माध्यम से किया गया है। दो प्रकार से निर्वचन करने पर नन्दी का ज्ञान के साथ सम्बन्ध स्पष्ट
यद्यपि ज्ञान-प्राप्ति के प्रमुख स्रोत आगम, शास्त्र या सूत्र होते हैं और जिस-जिस आगम का जैसा-जैसा नाम है, तदनुसार उस आगम में उस-उस विषय से सम्बन्धित वर्णन प्रायः किया गया है। परन्तु जब हम प्रस्तुत आगम का नाम 'नन्दीसूत्र' पढ़ते-सुनते हैं, तब बुद्धि सहसा निर्णय नहीं कर पाती कि 'नन्दी' के साथ ज्ञान का क्या सम्बन्ध है ? इस आगम को ज्ञान का प्ररूपक क्यों कहा गया? इसमें मुख्यतया पंचविध ज्ञान का ही वर्णन क्यों किया गया? नन्दीसूत्र नामकरण करने के पीछे आचार्यों का क्या आशय रहा हुआ है ? ज्ञान-प्ररूपक इस शास्त्र का नाम 'नन्दी' क्यों रखा है? आचार्यों ने इसका समाधान दो दृष्टियों से किया है-(१) आनन्द की दृष्टि से, (२) समृद्धि की दृष्टि से। चूर्णि का मत है-नन्दी शब्द 'टुनदि समृद्धौ' धातु से निष्पन्न होता है। समृद्धि आनन्ददायिनी होने से नन्दी शब्द का निर्वचन किया गया है-“नन्दनं नन्दी" अथवा “नन्द्यते वाऽनेनेति नन्दी।" । अर्थात् प्रमोद, हर्ष, आनन्द या कन्दर्प का नाम नन्दी है। अथवा जिससे प्रमोद, हर्ष या आनन्द प्राप्त हो, उसे नन्दी कहते हैं। जिसे प्राप्त करके आत्मा को आनन्द, हर्ष या प्रमोद (प्रसन्नता) हो वह नन्दी कहलाता है। ज्ञान आत्मा का निजी गुण है, वह आत्मा की वास्तविक भाव-सम्पदा है। जैसे चिरकाल से खोई हुई निजी द्रव्य-सम्पदा प्राप्त हो जाने पर मानव को अपूर्व प्रसन्नता होती है, आनन्द की अनुभूति होती है; इसी प्रकार अज्ञान एवं मिथ्यात्व के कारण आत्मा की सघन रूप से आवृत, सुषुप्त, कुण्ठित या लुप्त ज्ञानरूपी भाव-सम्पदा जब प्राप्त या प्रकट हो जाती है, तब मानव को अपूर्व आनन्द की अनुभूति होती है। इसी दृष्टि से ज्ञान को अथवा पंचविध ज्ञान के प्ररूपक आगम को 'नन्दी' शब्द से व्यवहृत किया गया है।
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