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________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन २५३ "जितने भी अविद्यावान् (अज्ञानी, मिथ्या ज्ञानी) पुरुष हैं, वे सब अपने लिए दुःखों को उत्पन्न करते हैं, वे मूढ़ इस जन्म-मरणादि दुःखबहुल अनन्त संसार में बार-बार भटकते हैं ।" भगवद् गीता में भी कहा गया है- ( आत्मा का) “सम्यक् ज्ञान अज्ञान से आवृत है, इसी कारण प्राणी मूर्च्छित - मोहित हो जाते हैं ।” ३ आत्म-ज्ञान से क्या उपलब्ध होता है ? आशय यह है कि मनुष्य के अन्तःकरण में जब अज्ञान, अविद्या या मिथ्यात्व का भीषण अन्धकारमय अंधड़ चलता है, तब वह भ्रान्त होकर अपने पुरुषार्थ की यथार्थ दिशा और आत्मा के निजी गुणों के पथ से भटक जाता है। परन्तु ज्यों ही वह पर - परिणति से हटकर आत्मा के स्व-भावों- स्व- गुणों में रमण करता है तो उसे अपने निज स्वरूप का, निजानन्द का, स्व-शक्ति का, ज्ञान- भान हो जाता है, जो उसे आत्मा के अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आत्मिक सुख और आत्म-शक्ति की ओर सतत आगे बढ़ने और मोक्ष रूप अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करने की ओर इंगित करता रहता है। अगर किसी मनुष्य को आत्म-ज्ञान (सम्यक् ज्ञान) हो जाता है तो उसे जीवन की विभिन्न समस्याओं का तथा विभिन्न रूपों का समाधान हो जाता है । सांसारिक प्राणी, खासतौर से मानव के जीवन में केवल सुख या आनन्द ही नहीं है और न केवल दुःख है । यदि केवल भौतिक या वैषयिक सुख ही सुख जीवन में होता तो मनुष्य ऊब जाता; वह सुख भी उसे दुःखरूप प्रतीत होता । मानव और मानवेतर प्राणियों का अस्तित्त्व पृथक्-पृथक् होते हुए भी आत्म-ज्ञान उनमें परस्पर आत्मौपम्य सम्बन्ध का प्रतिपादन तथा मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और मध्यस्थ भावनाओं के व्यवहार का कथन करता है। जैनदर्शन मोक्षवादी दर्शन है। साथ ही अनेकान्तवादी होने से व्यवहार और निश्चय दोनों दृष्टियों से वस्तुतत्त्व का ज्ञान कराता है। यही कारण है कि जैनधर्म के तीर्थंकरों ने तथा गणधरों, आचार्यों तथा पूर्वधरों ने आगमों में यत्र-तत्र शरीर और आत्मा का, आत्मा और अनात्मा का, यानी चेतन (जीव ) और अचेतन का, साधु और असाधु का, धर्म और अधर्म का, पुण्य और पाप का, आस्रव और संवर का, बन्ध और निर्जरा तथा मोक्ष का, कर्मों से मुक्त और अमुक्त का तथैव स्वभाव और विभाव ( कषाय, राग, द्वेषादि) का स्पष्ट परिज्ञान बताया है। साथ ही ज्ञपरिज्ञा से हेय - उपादेय को भलीभाँति जानकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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