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________________ * २५२ मूलसूत्र : एक परिशीलन इसका भावार्थ यह है कि समग्र ज्ञान के प्रकाश से, अज्ञान और मोह से रहित हो जाने पर तथा राग और द्वेष के क्षय हो जाने से आत्मा एकान्त सुखरूप मोक्ष को प्राप्त कर लेती है। तात्पर्य यह है कि एक मात्र शुद्ध सम्यक् ज्ञान ही अव्याबाध सुख का, परम आनन्द का मूल स्रोत है। ज्ञान आत्मा का निजी गुण : किन्तु आवृत होने से प्रकट नहीं हो पाता ज्ञान आत्मा का निजी गुण भी है, वह आत्मा में ही विद्यमान है, पृथक् नहीं है, किन्तु राग, द्वेष, मोहादिवश कर्मों से आवृत, कुण्ठित, सुषुप्त एवं भ्रान्त होने के कारण आत्मा अपने पास सम्यक् ज्ञान होते हुए भी अविद्या, मिथ्यात्व एवं अज्ञान के कारण दुःख पाता रहता है । वह दुःखबीज भौतिक या वैषयिक सुख को ही सुख समझ लेता है और इष्ट-वियोग तथा अनिष्ट - संयोग में दुःख की एवं इष्ट-संयोग और अनिष्ट-वियोग में सुख की कल्पना करता रहता है और राग, द्वेष, मोह के कारण कर्मबन्ध करके जन्म-मरणादि रूप दुःख पाता रहता है । एकान्त आत्मिक सुख की प्राप्ति सम्यक् ज्ञान में स्व-पुरुषार्थ से ही निष्कर्ष यह है कि एकान्त अव्याबाध रूप आत्मिक सुख या परम आनन्द की प्राप्ति उसे तभी हो सकेगी, जब वह मिथ्या ज्ञान, मिथ्यात्व, अज्ञान एवं मोहादि के शिलाखण्डों को स्वकीय पुरुषार्थ से हटायेगा। चूँकि जैनदर्शन ऐसी ज्ञात या अज्ञात किसी अन्य शक्ति को स्वीकार नहीं करता, जो उसके अज्ञान को दूर कर दे और उसमें सम्यक् ज्ञान का प्रकाश भर दे । यदि ऐसा होता तो कोई भी मनुष्य अज्ञानान्धकार में न भटकता, सभी प्राणी सम्यक् ज्ञान के प्रकाश को पाकर सुखी, शान्त, सन्तुष्ट एवं आनन्दमग्न हो जाते; किन्तु ऐसा नहीं है। जितने भी पूर्ण ज्ञानी या सम्यक् ज्ञानवान् आत्म-ज्ञानी या आत्मवान् हुए हैं, उन्होंने जिज्ञासु, मुमुक्षु, आत्मार्थी या श्रेयार्थी भव्य जीवों को अपने यथार्थ अनुभव के आधार पर सत्य-ज्ञान का मार्गदर्शन अवश्य किया है । यही कारण है कि तीर्थंकरोक्त सम्यक् ज्ञान के लिए जो स्वयं सत्पुरुषार्थ नहीं करते, उनके लिए कहा है Jain Education International " जावंतऽविज्जा पुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुंपति बहुसो मूढा, संसारम्मि अनंतए ॥ २ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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