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नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन
वास्तविक आनन्द कहाँ, किसमें और कब ?
संसार का प्रत्येक प्राणी सुख की शोध में भटक रहा है। सुख प्राप्ति के लिए वह नाना प्रकार के उपाय करता है, अनेक पदार्थों और पाँचों इन्द्रियों को सुख प्राप्ति का उपाय समझकर आसक्तिवश अपनाता है । परन्तु जिन पदार्थों, विषयभोगों अथवा व्यक्तियों को उसने आसक्तिवश अपनाया या अपनाकर सुख का स्वप्न देखा, भौतिक समृद्धि के सरोवर में नहाकर आनन्द की कल्पना की, उतना ही वह वास्तविक सुख से, परम आनन्द से, आत्मिक समृद्धि से दूरातिदूर होता गया । संसार का प्रायः प्रत्येक प्राणी दुःख, कष्ट, पीड़ा, अशान्ति और विपत्ति आदि की भीषण ज्वाला से परित्राण पाने के लिए यद्यपि इधर-उधर भाग-दौड़ कर रहा है; फिर भी उस अव्याबाध अजस्र सुख की अनन्त धारा से बहुत दूर होता जा रहा है। उसे आत्मिक सुख या परम आनन्द तथा सर्वकर्मक्षय होने से निर्वाणरूप अनन्त शान्ति की प्राप्ति न होने में मूलभूत कारण है - अज्ञान, मिथ्यात्व एवं मिथ्या ज्ञान । अज्ञान ही उसे संसाररूपी भयंकर अटवी में भटकाने वाला है । जब मनुष्य के अन्तःकरण में अज्ञान, मिथ्या ज्ञान, मिथ्यात्व एवं मोह की अन्धकारमयी भीषण आँधी चलती है, तब वह भ्रान्त होकर अपने लक्ष्य की दिशा तथा आत्मानन्द के पथ से भटक जाता है। ऐसे अज्ञानान्धकार में भटकते हुए प्राणी की आत्मा में ज्यों ही ज्ञानालोक की अनन्त रश्मियाँ प्रस्फुटित होती हैं, त्यों ही उसे निज स्वरूप का भान एवं परिज्ञान हो जाता है। ऐसी स्थिति में जब वह परभावों और विभावों से हटकर आत्म-भावों में रमण करने लगता है, तब उसे अपनी आत्मा में ही विद्यमान परम आनन्द, निजानन्द या अनन्त अव्याबाध आत्मिक सुख तथा विकल्प शून्य निराकुलतानिर्विकल्पता से युक्त आत्मानन्द की अनुभूति होने लगती है। श्रमण भगवान महावीर ने पावापुरी के अपने अन्तिम प्रवचन में इसी तथ्य की ओर निर्देश किया है
“नाणस्स सव्वस्स पगासणाए, अन्त्राण- मोहस्स विवज्जणाए । रागस्स दोसस्स उ संखएण, एगंत- सोक्खं समुवेइ मोक्खं ॥””
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