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________________ अनुयोगद्वारसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * २३९ * सूत्रस्पर्शी है। सूत्र के गुरु गम्भीर रहस्यों को इसमें प्रकट किया गया है। वृत्ति के प्रारम्भ में श्रमण भगवान महावीर को, गणधर गौतम प्रभृति आचार्यवर्ग को एवं श्रुत देवता को नमस्कार किया गया है। __ वृत्तिकार ने इस बात का स्पष्टीकरण किया है कि प्राचीन मेधावी आचार्यों ने चूर्णि व टीकाओं का निर्माण किया है। उनमें उन आचार्यों का प्रकाण्ड पाण्डित्य झलक रहा है। तथापि मैंने मन्दबुद्धि व्यक्तियों के लिए इस पर वृत्ति लिखी है। यह वृत्ति ग्रन्थकार की प्रौढ़ रचना है। कृति के अध्ययन से ग्रन्थकार की गहन अध्ययनशीलता का अनुभव होता है। आगम के मर्मस्पर्शी विवेचन से यह स्पष्ट है कि आचार्य आगम के एक मर्मज्ञ विद्वान् थे। उनकी प्रस्तुत वृत्ति अनुयोगद्वार की गहनता को समझाने के लिए अत्यन्त उपयोगी है। आचार्य हरिभद्र की टीका अत्यन्त संक्षिप्त थी और वह मुख्य रूप से प्राकृत चूर्णि का ही अनुवाद थी। आचार्य हेमचन्द्र ने सुविस्तृत टीका लिखकर पाठकों के लिए अनुयोगद्वार को सरल और सुग्राह्य बना दिया है। वृत्ति में यत्र-तत्र अन्य ग्रन्थों के श्लोक उद्धृत किए गये हैं। वृत्ति का ग्रन्थमान ५,९०० श्लोक प्रमाण है। पर वृत्ति में रचना के समय का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। ___ संस्कृत टीका युग के पश्चात् लोक भाषाओं में बालावबोध की रचनाएँ प्रारम्भ हुईं, क्योंकि टीकाओं में दार्शनिक विषयों की चर्चाएँ चरम सीमा पर पहुँच गई थीं। जनसाधारण उन विषयों को सहज रूप से नहीं समझ सकता था, अतः जनहित की दृष्टि से आगमों के शब्दार्थ करने वाले संक्षिप्त लोकभाषाओं में टब्बाओं का निर्माण किया। स्थानकवासी आचार्य मुनि धरमसिंह जी ने विक्रम की अठारहवीं शताब्दी में सत्ताईस आगमों पर बालावबोध टब्बे लिखे। टब्बे मूलस्पर्शी अर्थ को स्पर्श करते हैं। सामान्य व्यक्तियों के लिए ये बहुत ही उपयोगी हैं। अनुयोगद्वार पर भी एक टब्बा लिखा हुआ है। ___टब्बा के पश्चात् आगमों का अनुवाद-युग प्रारम्भ हुआ। आचार्य अमोलक ऋषि जी म. ने स्थानकवासी परम्परामान्य बत्तीस आगमों का हिन्दी अनुवाद किया। उसमें अनुयोगद्वार भी एक है। यह अनुवाद सामान्य पाठकों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुआ। श्रमणसंघ के प्रथम आचार्य श्री आत्माराम जी म. ने आगमों के रहस्यों को समुद्घाटित करने हेतु अनेक आगमों पर हिन्दी में व्याख्याएँ लिखीं। वे व्याख्याएँ सरल, सरस और सुगम हैं। उन्होंने अनुयोगद्वार पर भी संक्षिप्त विवेचन लिखा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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