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* २४०* मूलसूत्र : एक परिशीलन
स्थानकवासी परम्परा के आचार्य श्री घासीलाल जी म. ने संस्कृत में विस्तृत टीकाएँ लिखीं। उन टीकाओं का हिन्दी और गुजराती में अनुवाद भी किया। प्रायः उनके रचित बत्तीस आगमों की टीकाएँ मुद्रित हो चुकी हैं। लेखक ने अनेक ग्रन्थों के उद्धरण भी दिये हैं।
इस प्रकार अनुयोगद्वारसूत्र पर अनेक मूर्धन्य मनीषियों ने कार्य किया है। जब प्रकाशन युग प्रारम्भ हुआ तब सर्वप्रथम सन् १८८० में अनुयोगद्वारसूत्र मलधारी हेमचन्द्रकृत वृत्ति सहित रायबहादुर धनपतसिंह, कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। उसके पश्चात् सन् १९१५-१९१६ में वही आगम देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार, बम्बई से प्रकाशित हुआ है। पुनः सन् १९२४ में आगमोदय समिति, बम्बई से वह वृत्ति प्रकाशित हुई और सन् १९३९-१९४० में केसरबाई ज्ञान मन्दिर, पाटन से यह वृत्ति प्रकाशित हुई।
सन् १९२८ में अनुयोगद्वार हरिभद्रकृत वृत्ति सहित ऋषभदेव जी केशरीमल जी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम से प्रकाशित हुआ।
वीर संवत् २४४६ में सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद जौहरी, हैदराबाद ने अनुयोगद्वार आचार्य अमोलक ऋषि जी द्वारा किये गये हिन्दी अनुवाद को प्रकाशित किया।
सन् १९३१ में श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कॉन्फ्रेंस, बम्बई ने उपाध्याय श्री आत्माराम जी म. कृत हिन्दी अनुवाद का पूर्वार्ध प्रकाशित किया और उसका उत्तरार्ध मुरारीलाल चरणदास जैन, पटियाला ने प्रकाशित किया।
अनुयोगद्वारसूत्र का मूल पाठ अनेक स्थलों से प्रकाशित हुआ है, पर महावीर विद्यालय, बम्बई का संस्करण अपनी शानी का है। शुद्ध मूल पाठ के साथ ही प्राचीनतम प्रतियों के आधार से महत्त्वपूर्ण टिप्पण भी दिये हैं और आगमप्रभावक श्री पुण्यविजय जी म. की महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना भी है। प्रस्तुत आगम
स्वर्गीय सन्तरत्न युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जी म. ने आगम बत्तीसी के प्रकाशन का दायित्त्व वहन किया और उनकी प्रबल प्रेरणा से उत्प्रेरित होकर अनेक मूर्धन्य मनीषियों ने आगम सम्पादन का कार्य प्रारम्भ किया। विविध मनीषियों के पुरुषार्थ से स्वल्प समय में अनेक आगम प्रकाशित होकर प्रबुद्ध पाठकों के हाथों में पहुंचे। प्रायः शुद्ध मूल पाठ, अर्थ और संक्षिप्त विवेचन के कारण यह संस्करण अत्यधिक लोकप्रिय हुआ है।
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