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* २३८ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
विवेचन किया गया है। ज्ञान और प्रमाण, संख्यात-असंख्यात, अनन्त आदि विषयों पर भी चूर्णिकार ने प्रकाश डालने का प्रयास किया है। ___ आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण, जो सुप्रसिद्ध भाष्यकार रहे हैं, जिन्होंने अनुयोगद्वार के अंगुल पद पर एक चूर्णि लिखी थी, उस चूर्णि को जिनदासगणी महत्तर ने अक्षरशः उद्धृत किया है।९३ प्रस्तुत चूर्णि में आचार्य ने अपना नाम भी दिया है।९४ टीका-साहित्य
चूर्णि के पश्चात् जैन मनीषियों ने आगम-साहित्य पर संस्कृत में अनेक टीकाएँ लिखी हैं। टीकाकारों में आचार्य हरिभद्रसूरि का नाम सर्वप्रथम है। वे प्राचीन टीकाकार हैं। हरिभद्रसूरि प्रतापपूर्ण प्रतिभा के धनी आचार्य थे। उन्होंने अनेक आगमों की टीकाएँ लिखी हैं। अनुयोगद्वार पर भी उनकी एक महत्त्वपूर्ण टीका है, जो अनुयोगद्वारचूर्णि की शैली पर लिखी गई है। टीका के प्रारम्भ में उन्होंने सर्वप्रथम श्रमण भगवान महावीर को नमस्कार कर अनुयोगद्वार पर विवृत्ति लिखने की प्रतिज्ञा की है।९५ अनुयोगवृत्ति का नाम उन्होंने शिष्यहिता दिया है। इस वृत्ति की रचना नन्दी विवरण के पश्चात् हुई है।९६ मंगल आदि शब्दों का विवेचन नन्दीवृत्ति में हो जाने के कारण इसमें विवेचन नहीं किया है, ऐसा टीकाकार का मत है। आवश्यक शब्द पर निक्षेपपद्धति से चिन्तन किया है। श्रुत पर निक्षेपपद्धति से विचार कर टीकाकार ने चतुर्विध श्रुत के स्वरूप को आवश्यक विवरण से समझाने का सूचन किया है। स्कन्ध, उपक्रम आदि को भी निक्षेप की दृष्टि से समझाने के पश्चात् विस्तार के साथ आनुपूर्वी का प्रतिपादन किया है। आनुपूर्वी के अनुक्रम, अनुपरिपाटी, ये पर्यायवाची बताये हैं। आनुपूर्वी के पश्चात् द्विनाम से लेकर दशनाम तक का व्याख्यान किया गया है। प्रमाण पर चिन्तन करते हुए विविध अंगुलों के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है और समय से लेकर पल्योपम-सागरोपम तक का वर्णन किया गया है। भावप्रमाण के वर्णन में प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य, आगम, दर्शन, चारित्रनय और संख्या पर विचार किया है। ज्ञाननय और क्रियानय के समन्वय की उपयोगिता सिद्ध की गई है।९७
अनुयोगद्वार पर दूसरी वृत्ति मलधारी आचार्य हेमचन्द्र की है। आचार्य हेमचन्द्र महान् प्रतिभा-सम्पन्न और आगमों के समर्थ ज्ञाता थे। यह वृत्ति
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