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अनुयोगद्वारसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन २३७
है । ९° उत्तराध्ययनचूर्णि में उन्होंने अपने गुरु का नाम एवं कुल, गण और शाखा का उल्लेख किया है, पर स्वयं के नाम का उल्लेख नहीं किया । ९१ निशीथचूर्णि के प्रारम्भ में उन्होंने प्रद्युम्न क्षमाश्रमण का विद्यागुरु के रूप में उल्लेख किया है। निशीथचूर्णि के अन्त में उन्होंने अपना परिचय रहस्य शैली में दिया है। वे लिखते हैं- अकारादि स्वरप्रधान वर्णमाला को एक वर्ग मानने पर अवर्ग से सवर्ग तक आठ वर्ग बनते हैं । प्रस्तुत क्रम से तृतीय 'च' वर्ग का तृतीय अक्षर 'ज', चतुर्थ 'ट' वर्ग का पंचम अक्षर 'ण', पंचम 'त' वर्ग का तृतीय अक्षर 'द', अष्टम वर्ग का तृतीय अक्षर 'स' तथा प्रथम 'अ' वर्ग की मात्रा 'इकार' द्वितीय माता 'आकार' को क्रमशः 'ज' और 'द' के साथ मिला देने पर जो नाम होता है, उसी नाम को धारण करने वाले व्यक्ति ने प्रस्तुत चूर्णि का निर्माण किया है । ९२
चूर्णि
अनुयोगद्वारचूर्णि के रचयिता जिनदासगणी महत्तर ही हैं । उनका समय विक्रम संवत् ६५० से ७५० के मध्य है। क्योंकि नन्दीचूर्णि की रचना विक्रम संवत् ७३३ में हुई है।
अनुयोगद्वारचूर्णि मूलसूत्र का अनुसरण करते हुए लिखी गई है। इस चूर्णि में प्राकृत भाषा का ही मुख्य रूप से प्रयोग हुआ है । संस्कृत भाषा का प्रयोग अतिअल्प मात्रा में हुआ है। इसमें आराम, उद्यान, शिविका प्रभृति शब्दों की व्याख्या है। प्रारम्भ में मंगल के सम्बन्ध में भावनन्दी का स्वरूप - विश्लेषण करते हुए ज्ञान के पाँच भेदों पर चिन्तन न कर यह लिखा है कि इस पर हम नन्दी चूर्णि में व्याख्या कर चुके हैं। अतः उसका अवलोकन करने हेतु प्रबुद्ध पाठकों को सूचन किया है। इससे यह भी स्पष्ट है कि अनुयोगद्वारचूर्णि नन्दी चूर्णि के पश्चात् लिखी गई । अनुयोगविधि और अनुयोगार्थ पर चिन्तन करते हुए आवश्यक पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। आनुपूर्वी पर विवेचन करते हुए कालानुपूर्वी का स्वरूप प्रतिपादन करते हुए उन्होंने पूर्वांगों का परिचय दिया है। सप्त स्वरों का संगीत की दृष्टि से गहराई से चिन्तन किया है । वीर, शृंगार, अद्भुत, रौद्र, ब्रीडनक, वीभत्स, हास्य, करुण और प्रशान्त इन नौ रसों का सोदाहरण निरूपण है। आत्मांगुल, उत्सेधांगुल, प्रामाणांगुल, कालप्रमाण, मनुष्य आदि प्राणियों का प्रमाण गर्भज आदि मानवों की संख्या आदि पर
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