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२३६ मूलसूत्र : एक परिशीलन
अनुयोगद्वार का रचना समय वीर निर्वाण संवत् ८२७ से पूर्व माना गया है और कितने विद्वान् उसे दूसरी शताब्दी की रचना मानते हैं । आगमप्रभावक पुण्यविजय जी म. आदि का यह मन्तव्य है कि अनुयोग का पृथक्करण तो आचार्य आर्य रक्षित ने किया किन्तु अनुयोगद्वारसूत्र की रचना उन्होंने ही की हो तो निश्चित रूप से नहीं कह सकते ।
व्याख्या - साहित्य
मूल ग्रन्थ के रहस्य का समुद्घाटन करने हेतु अतीतकाल से उस पर व्याख्यात्मक साहित्य लिखा जाता रहा है । व्याख्यात्मक लेखक मूल ग्रन्थ के अभीष्ट अर्थ का विश्लेषण तो करता ही है, साथ ही उस सम्बन्ध में अपना स्वतन्त्र चिन्तन भी प्रस्तुत करता है। प्राचीनतम जैन व्याख्यात्मक साहित्य में आगमिक व्याख्याओं का गौरवपूर्ण स्थान है। उस व्याख्यात्मक साहित्य को पाँच भागों में विभक्त किया जा सकता है - ( 9 ) निर्युक्तियाँ (निज्जुत्ति), (२) भाष्य (भास), (३) चूर्णियाँ (चुण्णि), (४) संस्कृत टीकाएँ, और (५) लोकभाषाओं में रचित व्याख्याएँ ।
निर्युक्तियाँ और भाष्य ये जैन आगमों की प्राकृत पद्यबद्ध टीकाएँ हैं जिनमें विशेष रूप से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्याएँ की गई हैं। इस व्याख्या -शैली का दर्शन हमें अनुयोगद्वारसूत्र में होता है । पर अनुयोगद्वार पर न निर्युक्ति लिखी गई है और न कोई भाष्य ही लिखा गया है। अनुयोगद्वार पर सबसे प्राचीन व्याख्याचूर्णि है। चूर्णियाँ प्राकृत अथवा संस्कृत - मिश्रित प्राकृत में लिखी गई व्याख्याएँ हैं। गद्यात्मक होने के कारण चूर्णियों में भावनाभिव्यक्ति निर्बाध गति से हो पाई है। वह भाष्य और निर्युक्ति की अपेक्षा अधिक विस्तृत पर चतुर्मुखी ज्ञान का स्रोत है। अनुयोगद्वार पर दो चूर्णियाँ उपलब्ध हैं। एक चूर्णि के रचयिता जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण हैं, जो केवल अंगुल पद पर है। दूसरी अनुयोगद्वारचूर्णि के रचयिता जिनदासगणी महत्तर हैं वे संस्कृत और प्राकृत के अधिकारी विज्ञ थे। इनके गुरु का नाम गोपालगणी था, जो वाणिज्यकुलकोटिक गण और वज्रशाखा के विद्वान् थे८६ और उनके विद्यागुरु प्रद्युम्न क्षमाश्रमण थे । ८७ उनके पिता का नाम नाग था८८ और माता का नाम गोपा था । ८९
जिनदासमहत्तर के जीवन के सम्बन्ध में विशेष सामग्री उपलब्ध नहीं है । नन्दी चूर्णि के अन्त में उन्होंने जो अपना परिचय दिया है, वह बहुत ही अस्पष्ट
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