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________________ अनुयोगद्वारसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * २३५ * ___ अनुयोगद्वार के रचयिता या संकलनकर्ता आर्य रक्षित माने जाते हैं। आर्य रक्षित से पहले यह पद्धति थी कि आचार्य अपने मेधावी शिष्यों को छोटे-बड़े सभी सूत्रों की वाचना देते समय चारों अनुयोगों का बोध करा देते थे। उस वाचना का क्या रूप था? वह आज हमारे समक्ष नहीं है, तथापि इतना कहा जा सकता है कि वे वाचना देते समय प्रत्येक सूत्र पर आचारधर्म, उसके पालनकर्ता, उनके साधन-क्षेत्र का विस्तार और नियम-ग्रहण की कोटि एवं भंग आदि का वर्णन कर सभी अनुयोगों का एक साथ बोध कराते थे। इसी वाचना को अपृथक्त्वानुयोग कहा गया है। आचार्य मलयगिरि ने लिखा है कि जब चरणकरणानुयोग आदि चारों अनुयोगों का प्रत्येक सूत्र पर विचार किया जाय तो वह अपृथक्त्वानुयोग है। अपृथक्त्वानुयोग में विभिन्न नयदृष्टियों का अवतरण किया जाता है और उसमें प्रत्येक सूत्र पर विस्तार से चर्चा की जाती है।८३ आर्य वज्रस्वामी तक कालिक आगमों के अनुयोग (वाचना) में अनुयोगों का अपृथक्त्व रूप रहा। उसके पश्चात् आर्य रक्षित ने कालिक श्रुत और दृष्टिवाद के पृथक् अनुयोग की व्यवस्था की।८४ कारण कि आर्य रक्षित के धर्मशासन में ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी और वादी सभी प्रकार के सन्त थे। उन शिष्यों में पुष्यमित्र के तीन विशिष्ट महामेधावी शिष्य थे। उनमें से एक का नाम दुर्बलिकापुष्यमित्र, दूसरे का घृतपुष्यमित्र और तीसरे का वस्त्रपुष्यमित्र था। घृतपुष्यमित्र और वस्त्रपुष्यमित्र की लब्धि का यह प्रभाव था कि प्रत्येक गृहस्थ के घर से श्रमणों को घृत और वस्त्र सहर्ष उपलब्ध होते थे। दर्बलिकापष्यमित्र निरन्तर स्वाध्याय में तल्लीन रहते थे। आर्य रक्षित के अन्य मुनि, विन्ध्य, फल्गुरक्षित, गोष्ठामाहिल प्रतिभासम्पन्न शिष्य थे। उन्हें जितना सूत्रपाठ आचार्य से प्राप्त होता था उससे उन्हें सन्तोष नहीं होता था, अतः उन्होंने एक पृथक् वाचनाचार्य की व्यवस्था के लिए प्रार्थना की। आचार्य ने दुर्बलिकापुष्यमित्र को इसके लिए नियुक्त किया। कुछ दिनों के पश्चात् दुर्बलिकापुष्यमित्र ने आचार्यों से निवेदन किया कि वाचना देने में समय लग जाने के कारण मैं पठित ज्ञान का पुनरावर्तन नहीं कर पाता, अतः विस्मरण हो रहा है। आचार्य को आश्चर्य हुआ कि इतने मेधावी शिष्य की भी यह स्थिति है। अतः उन्होंने प्रत्येक सत्र के अनुयोग पृथक्-पृथक् कर दिये। अपरिणामी और अतिपरिणामी शिष्य नय दृष्टि का मूलभाव नहीं समझकर कहीं कभी एकान्त ज्ञान, एकान्त क्रिया, एकान्त निश्चय अथवा एकान्त व्यवहार को ही उपादेय न मान लें तथा सूक्ष्म विषय में मिथ्याभाव नहीं ग्रहण करें, एतदर्थ नयों का विभाग नहीं किया।८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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