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* २३४ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
समान काल, लिंग आदि शब्दों को एकार्थवाची मानता है जबकि ऋजुसूत्रनय में काल आदि का भेद नहीं होता। शब्दनय से भी समभिरूढ़ का विषय कम है। वह पर्याय और व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद मानता है। जबकि शब्दनय पर्यायवाची शब्दों में किसी भी प्रकार का भेद नहीं मानता। समभिरूढ़नय इन्द्र, शक्र आदि एकार्थवाची शब्दों को भी व्युत्पत्ति की दृष्टि से भिन्न अर्थवाची मानता है। वह किसी एक ही शब्द को वाचक रूप में रूढ़ करता है। पर वह सूक्ष्मता शब्दनय में नहीं है। एवंभूतनय का विषय समभिरूढ़नय से भी न्यून है। वह अर्थ को भी उस शब्द का वाच्य तभी मानता है, जब अर्थ अपनी व्युत्पत्ति मूलक्रिया में लगा हो। सारांश यह है, पूर्व-पूर्व नय की अपेक्षा उत्तर-उत्तर नय सूक्ष्म और सूक्ष्मतर विषय वाला होता है; और उत्तर-उत्तर नय का विषय पूर्व-पूर्व नय के विषय पर ही आधृत है; और प्रत्येक का विषय क्षेत्र उत्तरोत्तर न्यून होने से इनका परस्पर में पौर्वापर्य सम्बन्ध है। नयद्वार के विवेचन के साथ ही चारों प्रकार के अनुयोगद्वार का वर्णन पूर्ण होता है।
इस प्रकार अनुयोद्वारसूत्र में बहुत ही महत्त्वपूर्ण जैन पारिभाषिक शब्द-सिद्धान्तों का विवेचन है। उपक्रम-निक्षेप शैली की प्रधानता और साथ ही भेद-प्रभेद की प्रचुरता होने से यह आगम अन्य आगमों से क्लिष्ट है तथापि जैनदर्शन के रहस्य को समझाने के लिए यह अतीव उपयोगी है। जैन आगम की प्राचीन चूर्णि-टीकाओं के प्रारम्भ के भाग को देखते हुए ज्ञात होता है कि समग्र निरूपण में वही पद्धति अपनाई गई है जो अनुयोगद्वार में है। यह सिर्फ श्वेताम्बर-सम्मत जैन आगमों की टीकाओं पर ही नहीं लागू होता वरन् दिगम्बरों ने भी यह पद्धति अपनाई है। इसका प्रमाण दिगम्बर-सम्मत षट्खण्डागम आदि प्राचीन शास्त्रों की टीका से मिलता है। इससे इसकी प्राचीनता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। अनुयोगद्वार में सांस्कृतिक सामग्री भी प्रचुर मात्रा में है। संगीत के सात स्वर, स्वरस्थान, गायक के लक्षण, ग्राम, मूर्च्छनाएँ, संगीत के गुण और दोष, नवरस, सामुद्रिक लक्षण, १०८ अंगुल के माप वाले, शंखादि चिह्न वाले, मस, तिल आदि व्यंजन वाले उत्तम पुरुष आदि बताये गये हैं। निमित्त के सम्बन्ध में भी प्रकाश डाला है, जैसे-आकाशदर्शन और नक्षत्रादि के प्रशस्त होने पर सुवृष्टि और अप्रशस्त होने पर दुर्भिक्ष आदि। इस तरह इसमें सांस्कृतिक व सामाजिक वर्णन भी किया गया है।८२
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