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अनुयोगद्वारसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * २३३ *
दिया गया है। पर्यायवाची शब्दों में भी काल, कारक, लिंग, संख्या, पुरुष और उपसर्ग के भेद से अर्थभेद मानना शब्दनय है।७९ विभिन्न संयोगों के आधार पर जो शब्दों में अर्थभेदी कल्पना की जाती है, वह शब्दनय है। पर्यायवाची शब्दों में भिन्न अर्थ को धोतित करना नियुक्ति यानि व्युत्पत्ति के भेद से पर्यायवाची शब्दों के अर्थ में भेद स्वीकार करने वाला समभिरूढ़नय है। इन्द्र, शक्र, पुरन्दर प्रभृति शब्द पर्यायवाची हैं। तथापि भिन्न-भिन्न व्युत्पत्ति से भिन्न-भिन्न अर्थ को द्योतित करते हैं।
शब्दनय तो समान काल, कारक, लिंग आदि युक्त पर्यायवाची शब्दों का एक ही अर्थ मानता है। किन्तु कारक आदि का भेद होने पर ही पर्यायवाची शब्दों में अर्थभेद स्वीकार करता है। पर कारक आदि का भेद न होने पर पर्यायवाची शब्दों में अभिन्न अर्थ मानता है पर समभिरूढ़नय तो पर्यायभेद होने से ही उन शब्दों में अर्थभेद मानता है।८० जिस समय पदार्थों में जो क्रिया होती है, उस समय क्रिया के अनुकूल शब्दों से अर्थ के प्रतिपादन करने को एवंभूतनय कहते हैं।८१ जैसे-ऐश्वर्य का अनुभव करते समय इन्द्र, समर्थ होने के समय शक्र और नगरों का नाश करते समय पुरन्दर कहना। एवंभूतनय निश्चय प्रधान है, शब्दों की जो व्युत्पत्ति है उस व्युत्पत्ति की निमित्तभूतक्रिया जब पदार्थ में होती है तब वह पदार्थ को उस शब्द का वाच्य मानता है। इस प्रकार सातों नय पूर्व-पूर्व नय से उत्तर-उत्तर नयों का विषय सूक्ष्म होता चला गया।
नैगमनय सामान्य और विशेष भेद-अभेद दोनों को ग्रहण करता है। जबकि संग्रहनय की दृष्टि उससे संकीर्ण है, वह सामान्य और अभेद को विषय करता है। संग्रहनय से भी व्यवहारनय का विषय कम है। संग्रहनय जहाँ समस्त सामान्य पदार्थों को जानता है और व्यवहारनय संग्रह से जाने हुए पदार्थ को विशेष रूप से ग्रहण करता है।
ऋजुसूत्रनय का विषय व्यवहारनय से कम है, चूँकि व्यवहारनय कालिक विषय की सत्ता को मानता है। जबकि ऋजुसूत्रनय से वर्तमान पदार्थ का ही परिज्ञान होता है। ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा शब्दनय का विषय कम है। क्योंकि शब्दनय काल आदि के भेद से वर्तमान पर्याय में भी भेद स्वीकार करता है। शब्दनय वर्तमान पर्याय के वाचक विविध पर्यायवाची शब्दों में से काल, लिंग, संख्या, पुरुष आदि व्याकरण सम्बन्धी विषमताओं का निराकरण करके केवल
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