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________________ * २३२ * मूलसूत्र : एक परिशीलन 'पापा (१) नैगमनय, (२) संग्रहनय, (३) व्यवहारनय, (४) ऋजुसूत्रनय, (५) शब्दनय, (६) समभिरूढ़नय, एवं (७) भूतनय। ठाणांग६७ और प्रज्ञापना६८ में भी सात नयों का वर्णन है। सात नयों में शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत ये तीन शब्दनय हैं६९ और नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये चार नय अर्थनय हैं। तीन शब्द को विषय कहते हैं, अतः शब्दनय है और शेष चार अर्थ को अपना विषय बनाते हैं इसलिये अर्थनय हैं। ___ सामान्य और विशेष आदि अनेक धर्मों को ग्रहण करने वाला अभिप्राय नैगमनय है।७० प्रस्तुत नय सत्तारूप सामान्य को द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व रूप अवान्तर सामान्य को असाधारण रूप विशेष तथा पररूप से व्यावृत्त और सामान्य से भिन्न अवान्तर विशेषों को जानता है अथवा दो द्रव्यों में से, दो पर्यायों में से तथा द्रव्य और पर्याय में से किसी एक को मुख्य और दूसरे को गौण करके जानना नैगमनय है।७१ विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तु को सामान्य रूप से जानना संग्रहनय है।७२ जैसे-जीव कहने से त्रस, स्थावर प्रभृति सभी प्रकार के जीवों का परिज्ञान होता है, भेद सहित सभी पर्यायों या विशेषों को अपनी जाति के विरोध के बिना एक मानकर सामान्य से सबको ग्रहण करने वाला संग्रहनय है।७३ दूसरे शब्दों में समस्त पदार्थों का सम्यक् प्रकार से एकीकरण करके जो अभेद रूप से ग्रहण करता है, वह संग्रहनय है।७४ अथवा यों भी कह सकते हैं कि व्यवहार की अपेक्षा न करके सत्तादि रूप से सकल पदार्थों का संग्रह करना संग्रहनय है।७५ संग्रहनय से जाने हुए पदार्थों का योग्य रीति से विभाग करने वाला अभिप्राय व्यवहारनय है।७६ __ संग्रहनय जिस अर्थ को ग्रहण करता है, उस अर्थ का विशेष रूप से बोध करने के लिए उसका पृथक्करण आवश्यक होता है। यह सत्य है, संग्रहनय में सामान्य मात्र का ही ग्रहण होता है तथापि उस सामान्य का रूप क्या है? इसका विश्लेषण करने के लिए व्यवहार की जरूरत होती है। इसलिए सामान्य को भेदपूर्वक ग्रहण करना व्यवहारनय है।७७ वर्तमानकालवर्ती पयार्य को मान्य करने वाले ग्रहण करने वाले अभिप्राय को ऋजुसूत्रनय कहते हैं।७८ भूतकाल विनष्ट और भविष्यकाल अनुत्पन्न होने से वह केवल वर्तमानकालवर्ती पर्याय को ही ग्रहण करता है। ऋजुसूत्रनय वर्तमान क्षण की पर्याय को ही प्रधानता देता है। जैसे-मैं इस समय सुख भोग रहा हूँ। यहाँ पर क्षणस्थायी सुखपर्याय को सुख मानकर उस सुखपर्याय का आधार जो आत्मद्रव्य है, उसको गौण कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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