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उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * १९ *
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नहीं है। उनकी दृष्टि से उत्तराध्ययन कर्तृत्व की दृष्टि से चार भागों में विभक्त किया जा सकता है-(१) अंगप्रभव, (२) जिनभाषित, (३) प्रत्येकबुद्धभाषित, (४) संवादसमुत्थित।३३ उत्तराध्ययन का द्वितीय अध्ययन अंगप्रभव है। वह कर्मप्रवादपूर्व के सत्तरहवें प्राभृत से उद्धृत है।३४ दसवाँ अध्ययन जिनभाषित है।३५ आठवाँ अध्यय प्रत्येकबुद्धभाषित है।३६ नौवाँ और तेईसवाँ अध्ययन संवादसमुत्थित है।३७
उत्तराध्ययन के मूल पाठ पर ध्यान देने से उसके कर्तृत्व के सम्बन्ध में अभिनव चिन्तन किया जा सकता है।
द्वितीय अध्ययन के प्रारम्भ में यह वाक्य आया है- “सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु बावीसं परीसहा समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया।"
सोलहवें अध्ययन के प्रारम्भ में यह वाक्य उपलब्ध है- “सुयं मे आउस ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं दस बंभचेरसमाहिठाणा पण्णत्ता।"
उनतीसवें अध्ययन के प्रारम्भ में यह वाक्य प्राप्त है-“सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खलु सम्मत्तपरिक्कमे नामऽज्झयणे समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइए।"
उपर्युक्त वाक्यों से यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि दूसरा तथा उनतीसवाँ अध्ययन श्रमण भगवान महावीर के द्वारा प्ररूपित है और सोलहवाँ अध्ययन स्थविरों के द्वारा रचित है। नियुक्तिकार ने द्वितीय अध्ययन को कर्मप्रवादपूर्व से निरूढ़ माना है।
जब हम गहराई से इस विषय में चिन्तन करते हैं तो सूर्य के प्रकाश की भाँति स्पष्ट ज्ञात होता है कि नियुक्तिकार ने उत्तराध्ययन को कर्तत्व की दृष्टि से चार भागों में विभक्त कर उस पर प्रकाश डालना चाहा, पर उससे उसके कर्तृत्व पर प्रकाश नहीं पड़ता, किन्तु विषय-वस्तु पर प्रकाश पड़ता है। दसवें अध्ययन में जो विषय-वस्तु है, वह भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित है, किन्तु उनके द्वारा रचित नहीं। क्योंकि प्रस्तुत अध्ययन की अन्तिम गाथा "बुद्धस्स निसम्म भासियं" से यह बात स्पष्ट होती है। इसी प्रकार दूसरे व उनतीसवें अध्ययन के प्रारम्भिक वाक्यों से भी यह तथ्य उजागर होता है।
छठे अध्ययन की अन्तिम गाथा है-अनुत्तर ज्ञानी, अनुत्तर दर्शी, अनुत्तर ज्ञान-दर्शन के धारक, अरिहन्त, ज्ञातपुत्र, भगवान वैशालिक महावीर ने ऐसा कहा है।३८ वैशालिक का अर्थ भगवान महावीर है।
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