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________________ * २२८ * मूलसूत्र : एक परिशीलन असंख्यात और अनन्तकाल (जिसका विस्तार पूर्व में दे चुके हैं) तक का होता, है। भावसमवतार के भी दो भेद हैं--आत्मभावसमवतार और तदुभयसमवतार। भाव का अपने ही स्वरूप में समवतीर्ण होना आत्मभावसमवतार कहलाता है। जैसे-क्रोध का क्रोध के रूप में समवतीर्ण होना। भाव का स्वरूप और पररूप दोनों में समवतार होना तदुभयभावसमवतार है। जैसे-क्रोध का क्रोध के रूप में समवतार होने के साथ ही मान के रूप में समवतार होना तदुभयभावसमवतार है। अनुयोगद्वारसूत्र का अधिक भाग उपक्रम की चर्चा ने रोक रखा है। शेष तीन निक्षेप संक्षेप में हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना ऐसी है कि ज्ञातव्य विषयों का प्रतिपादन उपक्रम में ही कर दिया है जिससे बाद के विषयों को समझना अत्यन्त सरल हो जाता है। उपक्रम में जिन विषयों की चर्चा की गई है उन सभी विषयों पर हम तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन करना चाहते थे जिससे कि प्रबुद्ध पाठकों को यह परिज्ञात हो सके कि आगम-साहित्य में अन्य स्थलों पर इन विषयों की चर्चा किस रूप में है और परवर्ती-साहित्य में इन विषयों का विकास किस रूप में हुआ है। पर समयाभाव के कारण हम चाहते हुए भी यहाँ नहीं कर पा रहे हैं। 'प्रमाण : एक अध्ययन' शीर्षक लेख में हमने प्रमाण की चर्चा विस्तार से की है, अतः जिज्ञासु पाठक उस ग्रन्थ का अवलोकन कर सकते हैं।५० निक्षेप : द्वितीय द्वार निक्षेप-यह अनुयोगद्वार का दूसरा द्वार है। निक्षेप जैनदर्शन का एक पारिभाषिक और लाक्षणिक शब्द है। पदार्थबोध के लिए निक्षेप का परिज्ञान बहुत ही आवश्यक है। निक्षेप की अनेक व्याख्याएँ विभिन्न ग्रन्थों में मिलती हैं। जीतकल्पभाष्य में आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने लिखा है-'नि' शब्द के तीन अर्थ हैं-ग्रहण, आदान और आधिक्य। 'क्षेप' का अर्थ है-प्रेरित करना। जिस वचन-पद्धति में नि/अधिक क्षेप/विकल्प है, वह निक्षेप है।५१ सूत्रकृतांगचूर्णि जिनदासगणी महत्तर ने निक्षेप की परिभाषा इस प्रकार की है-जिसका क्षेप/स्थापन नियत और निश्चित होता है, वह निक्षेप है।५२ बृहद् द्रव्यसंग्रह में आचार्य नेमिचन्द ने लिखा है-युक्तिमार्ग से प्रयोजनवशात्, जो वस्तु को नाम आदि चार भेदों में क्षेपण स्थापन करे वह निक्षेप है।५३ नयचक्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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