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________________ २२४ मूलसूत्र : एक परिशीलन १,००० उत्सेधांगुल अर्थात् १ प्रमाणांगुल होता है। इस प्रमाणांगुल से अनादि पदार्थों का नाप ज्ञात किया जाता है। इससे बड़ा अन्य कोई अंगुल नहीं है। कालप्रमाण प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न रूप से दो प्रकार का है। एक समय की स्थिति वाले परमाणु या स्कन्ध आदि का काल प्रदेशनिष्पन्न कालप्रमाण कहलाता है । समय, आवलिका, मुहूर्त, दिन, अहोरात्रि, पक्ष, मास, संवत्सर, युग, पल्य, सागर, अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी, परावर्तन आदि को विभागनिष्पन्न कालप्रमाण कहा गया है। समय बहुत ही सूक्ष्म कालप्रमाण है । इसका स्वरूप प्रतिपादित करते हुए वस्त्र - विदारण का उदाहरण दिया है। असंख्यात समय की १ आवलिका, संख्यात आवलिका का १ उच्छ्वासनिश्वास, प्रसन्न मन, पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति के १ श्वासोच्छ्वास को प्राण कहते हैं । ७ प्राणों का १ स्तोक, ७ स्तोकों का १ लव, उसके पश्चात् शीर्षप्रहेलिका, पल्योपम, सागरोपम की संख्या तक प्रकाश डाला है जिसका हम अन्य आगमों के विवेचन में उल्लेख कर चुके हैं। इस कालप्रमाण से चार गतियों के जीवों के आयुष्य पर विचार किया गया है। भावप्रमाण तीन प्रकार का है - गुणप्रमाण, नयप्रमाण और संख्याप्रमाण | गुणप्रमाण - जीवगुणप्रमाण और अजीवगुणप्रमाण इस तरह से दो प्रकार का है। जीवगुणप्रमाण के तीन भेद ज्ञानगुणप्रमाण, दर्शनगुणप्रमाण और चारित्रगुणप्रमाण हैं। इसमें से ज्ञानगुणप्रमाण के प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम ये चार भेद हैं। नोइन्द्रियप्रत्यक्ष के अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञानप्रत्यक्ष- ये तीन भेद हैं । ४९ अनुमान - पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्टसाधर्म्यवत् तीन प्रकार का है। पूर्ववत् अनुमान को समझाने के लिए एक रूपक दिया है। जैसे- किसी माता का कोई पुत्र लघुवय में अन्यत्र चला गया और युवक होकर पुनः अपने नगर में आया । उसे देखकर उसकी माता पूर्व लक्षणों से अनुमान करती है कि यह पुत्र मेरा ही है। इसे पूर्ववत् अनुमान कहा है। शेषवत् अनुमान कार्यतः, कारणतः, गुणतः, अवयवतः और आश्रयतः इस तरह पाँच प्रकार का है। कार्य से कारण का ज्ञान होना कार्यतः अनुमान कहा जाता है; जैसे- शंख, भेरी आदि के शब्दों से उनके कारणभूत पदार्थों का ज्ञान होना; यह एक प्रकार का अनुमान है। कारणतः अनुमान वह है जिसमें कारणों For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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