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________________ अनुयोगद्वारसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * २२५. -.-.-..-.-.-.-.-.- -- -. .-.-.-.से कार्य का ज्ञान होता है; जैसे-तन्तुओं से पट बनता है, मिट्टी के पिण्ड से घट बनता है। गुणतः अनुमान वह है जिससे गुण के ज्ञान से गुणी का ज्ञान किया जाय; जैसे-कसौटी से स्वर्ण की परीक्षा, गंध से फूलों की परीक्षा। अवयवतः अनुमान है अवयवों से अवयवी का ज्ञान होना; जैसे-सींगों से महिष का, शिखा से कुक्कुट का, दाँतों से हाथी का। आश्रयतः अनुमान वह है जिसमें आश्रय से आश्रयी का ज्ञान होता है। इसमें साधन से साध्य पहचाना जाता है; जैसे-धुएँ से अग्नि, बादलों से जल, सदाचरण से कुलीन पुत्र का ज्ञान होता है। दृष्टसाधर्म्यवत् अनुमान के सामान्यदृष्ट और विशेषदृष्ट-ये दो भेद हैं। किसी एक व्यक्ति को देखकर तद्देशीय या तज्जातीय अन्य व्यक्तियों की आकृति आदि का अनुमान करना सामान्यदृष्ट अनुमान है। इसी प्रकार अनेक व्यक्तियों की आकृति आदि से एक व्यक्ति की आकृति का अनुमान भी किया जा सकता है। किसी व्यक्ति को पहले एक बार देखा हो, पुनः उसको दूसरे स्थान पर देखकर अच्छी तरह पहचान लेना विशेषदृष्ट अनुमान है। उपमानप्रमाण के साधोपनीत और वैधोपनीत, ये दो भेद हैं। साधोपनीत के किंचित्साधोपनीत, प्रायःसाधोपनीत और सर्वसाधोपनीत, ये तीन प्रकार हैं। जिसमें कुछ साधर्म्य हो वह किंचित् साधोपनीत है। उदाहरण के लिए जैसा आदित्य है वैसा खद्योत है, क्योंकि दोनों ही प्रकाशित हैं। जैसा चन्द्र है वैसा कुमुद है, क्योंकि दोनों में शीतलता है। जिसमें लगभग समानता हो वह प्रायःसाधोपनीत है; जैसे-गाय है वैसी नील-गाय है। जिसमें सब प्रकार की समानता हो वह सर्वधाोपनीत है। यह उपमा देश, काल आदि की भिन्नता के कारण अन्य में नहीं प्राप्त होती। अतः उसकी उसी से उपमा देना सर्वसाधोपनीत उपमान है। इसमें उपमेय और उपमान भिन्न नहीं होते। जैसे-सागर सागर के सदृश है। तीर्थंकर तीर्थंकर के समान हैं। वैधोपनीत के किंचित्वैधोपनीत, प्रायःवैधोपनीत और सर्ववैधोपनीत, ये तीन प्रकार हैं। ___ आगम दो प्रकार के हैं-लौकिक और लोकोत्तर। मिथ्यादृष्टियों के बनाये हुए ग्रन्थ लौकिक आगम हैं। जिन्हें पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो गया है ऐसे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी द्वारा प्रतिपादित द्वादशांग गणिपिटक-यह लोकोत्तर आगम है अथवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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