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________________ अनुयोगद्वारसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * २२३ * -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. और प्रमाणांगुल के रूप में तीन प्रकार का है। जिस काल में जो मानव होते हैं उनके अपने अंगुल से १२ अंगुल प्रमाण मुख होता है। १०८ अंगुल प्रमाण पूरा शरीर होता है। वे पुरुष उत्तम, मध्यम और जघन्य रूप से तीन प्रकार के हैं। जिन पुरुषों में पूर्ण लक्षण हैं और १०८ अंगुल प्रमाण जिनका शरीर है वे उत्तम पुरुष हैं। जिन पुरुषों का शरीर १०४ अंगुल प्रमाण है वे मध्यम पुरुष हैं और जिनका शरीर ९६ अंगुल प्रमाण है वे जघन्य पुरुष हैं। इन अंगुलों के प्रमाण से ६ अंगुल का १ पाद, २ पाद की १ वितस्ति, २ वितस्ति का १ हाथ, २ हाथ की १ कुक्षि, २ कुक्षि का १ धनुष्य, २००० धनुष्य का १ कोश, ४ कोश का १ योजन होता है। प्रस्तुत प्रमाण से आराम, उद्यान, कानन, वन, वनखण्ड, कुआँ, वापिका, नदी, खाई, प्राकार, स्तूप आदि नापे जाते हैं। उत्सेधांगुल का प्रमाण बताते हुए परमाणु त्रसरेणु, रथरेणु का वर्णन विविध प्रकार से किया है। प्रकाश में जो धूलिकण आँखों से दिखाई देते हैं वे त्रसरेणु हैं। रथ के चलने से जे धूलि उड़ती है वह रथरेणु है। परमाणु का दो दृष्टियों से प्रतिपादन है-सूक्ष्म परमाणु और व्यावहारिक परमाणु। अनन्त सूक्ष्म परमाणुओं के मिलने से एक व्यावहारिक परमाणु बनता है। व्यावहारिक परमाणुओं की क्रमशः वृद्धि होते-होते मानवों का बालाग्र, लीख, नँ, यव और अंगुल बनता है, जो क्रमशः आठ गुने अधिक होते हैं। प्रस्तुत अंगुल के प्रमाण से ६ अंगुल का १ अर्द्ध-पाद, १२ अंगुल का १ पाद, २४ अंगुल का १ हस्त, ४८ अंगुल की १ कुक्षि, ९६ अंगुल का १ धनुष्य होता है। इसी धनुष्य के प्रमाण से २,००० धनुष्य का १ कोश और ४ कोश का १ योजन होता है। उत्सेधांगुल का प्रयोजन चार गतियों के प्राणियों की अवगाहना नापना है। यह अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट रूप से दो प्रकार की होती है। जैसे नरक में जघन्य अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग है और उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुष्य प्रमाण है और उत्तर विक्रिया करने पर जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग और उत्कृष्ट १,००० धनुष्य होती है। इस तरह उत्सेधांगुल का प्रमाण स्थायी, निश्चित और स्थिर है। उत्सेधांगुल से १,००० गुना अधिक प्रमाणांगुल होता है। वह भी उत्सेधांगुल के समान निश्चित है। अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव और उनके पुत्र भरत के अंगुल को प्रमाणांगुल माना गया है। अन्तिम तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर के एक अंगुल के प्रमाण में दो उत्सेधांगुल होते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो उनके ५०० अंगुल के बराबर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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