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________________ * २२२ मूलसूत्र : एक परिशीलन आगमतः पद का उदाहरण है । वर्णों के लोप से जो पद बनता है वह लोपतः पद है, जैसे- पटोऽत्र - पटोल । सन्धिकार्य प्राप्त होने पर भी सन्धि का न होना प्रकृतिभाव कहलाता है। जैसे शाले एते माले इमे । विकारतः पद के उदाहरणदंडाग्रः, नदीह, मधूदकम् । पंचनाम पाँच प्रकार का है - नामिक, नैपातिक, आख्यातिक, औपसर्गिक और मिश्र । षट्नाम औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और सन्निपातिक - छह प्रकार का है। इन भावों पर कर्मसिद्धान्त व गुणस्थानों की दृष्टि से विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला गया है। इसके पश्चात् सप्तनाम में सप्त स्वर पर, अष्टनाम में अष्ट विभक्ति पर, नवनाम में नवरत्न एवं दसनाम में गुणवाचक दस नाम बताये हैं । उपक्रम के तृतीय भेद प्रमाण पर चिन्तन करते हुए द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाण के रूप में चार भेद किये गये हैं । द्रव्यप्रमाण प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न रूप से दो प्रकार का है। प्रदेशनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण के अन्तर्गत परमाणु द्विप्रदेशी स्कन्ध यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध आदि हैं । विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण के मान, उन्मान, अवमान, गणितमान और प्रतिमान, ये पाँच प्रकार हैं। इनमें से मान के दो प्रकार हैं- धान्यमानप्रमाण, रसमानप्रमाण। धान्यमानप्रमाण के प्रसृति, सेधिका, कुडब, प्रस्थ, आढक, द्रोणि जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट, कुम्भ आदि भेद हैं। इसी प्रकार रसमान प्रमाण के भी विविध भेद हैं । उन्मान प्रमाण के अर्द्ध-कर्ष, कर्ष, अर्द्ध-पल, पल, अर्द्ध- ६- तुला, तुला, अर्द्ध-भार, भार आदि अनेक भेद हैं। इस प्रमाण से अगर, कुमकुम, खाँड़, गुड़ आदि वस्तुओं का प्रमाण मापा जा सकता है। जिस प्रमाण से भूमि आदि का माप किया जाय वह अवमान है। इसके हाथ, दंड, धनुष्य आदि अनेक प्रकार हैं। गणितमान प्रमाण में संख्या से प्रमाण निकाला जाता है। जैसेएक, दो से लेकर हजार, लाख करोड़ आदि जिससे द्रव्य के आय-व्यय का हिसाब लगाया जाय । प्रतिमान - जिससे स्वर्ण आदि मापा जाय। इसके गुञ्जा, कांगणी, निष्पाव, कर्ममाशक, मण्डलक, सोनैया आदि अनेक भेद हैं। इस प्रकार द्रव्य प्रमाण की चर्चा है। क्षेत्रप्रमाण प्रदेशनिष्पन्न और विभागनिष्पन्न दो प्रकार का है। एकप्रदेशावगाही, द्विप्रदेशावगाही आदि पुद्गलों से व्याप्त क्षेत्र को प्रदेशनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण कहा गया है । विभागनिष्पन्न क्षेत्रप्रमाण के अंगुल, वितस्ति, हस्त, कुक्षि, दंड, कोश, योजन आदि नाना प्रकार हैं। अंगुल - आत्मांगुल, उत्सेधांगुल For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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