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________________ अनुयोगद्वारसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन २२१ अध्ययन छह प्रकार का है - सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान । सामायिक रूप प्रथम अध्ययन के उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय ये चार अनुयोगद्वार हैं। छह प्रकार के उपक्रम उपक्रम का नामोपक्रम, स्थापनोपक्रम, द्रव्योपक्रम, क्षेत्रोपक्रम, कालोपक्रम और भावोपक्रम रूप छह प्रकार का है। अन्य प्रकार से भी उपक्रम के छह भेद बताये गये हैं- आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता, अर्थाधिकार और समवतार । उपक्रम का प्रयोजन है कि ग्रन्थ के सम्बन्ध में प्रारम्भिक ज्ञातव्य विषय की चर्चा | इस प्रकार की चर्चा होने से ग्रन्थ में आये हुए क्रमरूप से विषयों का निक्षेप करना । इससे वह सरल हो जाता है। आनुपूर्वी के नामानुपूर्वी स्थापनानुपूर्वी, द्रव्यानुपूर्वी, क्षेत्रानुपूर्वी, कालानुपूर्वी, उत्कीर्तनानुपूर्वी, गणनानुपूर्वी, संस्थानानुपूर्वी, सामाचार्यानुपूर्वी, भावानुपूर्वी; ये दस प्रकार हैं जिनका सूत्रकार ने अतिविस्तार से निरूपण किया है । प्रस्तुत विवेचन में अनेक जैन मान्यताओं का दिग्दर्शन कराया गया है। नामानुपूर्वी में नाम के एक, दो यावत् दस नाम बताये हैं। संसार के समस्त द्रव्यों के एकार्थवाची अनेक नाम होते हैं किन्तु वे सभी एक नाम के ही अन्तर्गत आते हैं । द्विनाम के एकाक्षरिक नाम और अनेकाक्षरिक नाम ये दो भेद हैं जिसके उच्चारण करने में एक ही अक्षर का प्रयोग हो वह एकाक्षरिक नाम है। जैसे -धी, स्त्री, ही इत्यादि । जिसके उच्चारण में अनेक अक्षर हों, वह अनेकाक्षरिक नाम है। जैसे - कन्या, वीणा, लता, माला इत्यादि । अथवा जीवनाम, अजीवनाम अथवा अविशेषिकनाम, विशेषिकनाम इस तरह दो प्रकार का है। इसका विस्तार से विवेचन किया गया है। त्रिनाम के द्रव्यनाम, गुणनाम और पर्यायनाम ये तीन प्रकार हैं। द्रव्यनाम के धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय (काल) ये छह भेद हैं। गुणनाम के वर्णनाम, गंधनाम, रसनाम, स्पर्शनाम और संस्थाननाम आदि भेद-प्रभेद हैं। पर्यायनाम के एकगुण कृष्ण, द्विगुण कृष्ण, त्रिगुण कृष्ण, यावत् दसगुण, संख्येयगुण, असंख्येयगुण और अनन्तगुण कृष्ण इत्यादि अनेक प्रकार हैं। चतुर्नाम चार प्रकार का है - आगमतः, लोपतः, प्रकृतितः और विकारतः । विभक्त्यन्त पद में वर्ण का आगमन होने से पद्म का पद्मानि । यह For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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