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* २१८ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
आगम-प्रभावक श्री पुण्यविजय जी म. ने अपनी अनुयोगद्वार की विस्तृत प्रस्तावना में अंग-साहित्य में अनुयोग की चर्चा कहाँ-कहाँ पर आई है, इस पर प्रमाण पुरस्सर प्रकाश डाला है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि श्रमण भगवान महावीर के समय सूत्र की जो व्याख्या-पद्धति थी उसी व्याख्या-पद्धति का विकसित और परिपक्व रूप हमें अनुयोगद्वारसूत्र में सहज रूप से निहारने को मिलता है। उसके पश्चात् लिखे गये जैन आगमों के व्याख्या-साहित्य में अनुयोगद्वार की शैली अपनाई गई। श्वेताम्बर ग्रन्थों में ही नहीं दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में भी इस शैली के सुन्दर संदर्शन होते हैं।
अनुयोगद्वार में द्रव्यानुयोग की प्रधानता है। उसमें चार द्वार हैं, १,८९९ श्लोक-प्रमाण उपलब्ध मूल पाठ हैं, १५२ गद्य-सूत्र हैं और १४३ पद्य-सूत्र हैं। आवश्यक वर्णन
अनुयोगद्वार में प्रथम पंचज्ञान से मंगलाचरण किया गया है। उसके पश्चात् आवश्यक-अनुयोग का उल्लेख है। इससे पाठक को सहज ही यह अनुमान होता है कि इसमें आवश्यकसूत्र की व्याख्या होगी, पर ऐसा नहीं है। इसमें अनुयोग के द्वार अर्थात् व्याख्याओं के द्वार उपक्रम आदि का ही विवेचन किया गया है। विवेचन या व्याख्या-पद्धति कैसी होनी चाहिए, यह बताने के लिए आवश्यक को दृष्टान्त के रूप में प्रस्तुत किया है। प्रस्तुत सूत्र में केवल आवश्यक, श्रुत, स्कन्ध, अध्ययन नामक ग्रन्थ की व्याख्या, उसके छह अध्ययनों में पिण्डार्थ (अर्थाधिकार का निर्देश), उनके नाम और सामायिक शब्द की व्याख्या दी है। आवश्यकसूत्र के पदों की व्याख्या नहीं है। इससे स्पष्ट है कि अनुयोगद्वार मुख्य रूप से अनुयोग की व्याख्याओं के द्वारों का निरूपण करने वाला ग्रन्थ है-आवश्यकसूत्र की व्याख्या करने वाला नहीं।
आगम-साहित्य में अंगों के पश्चात् सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान आवश्यकसूत्र को दिया गया है, क्योंकि प्रस्तुत सूत्र में निरूपित सामायिक से ही श्रमण-जीवन का प्रारम्भ होता है। प्रतिदिन प्रातः सन्ध्या के समय श्रमण-जीवन की जो आवश्यक क्रिया है इसकी शुद्धि और आराधना का निरूपण इसमें है। अतः अंगों के अध्ययन से पूर्व आवश्यक का अध्ययन आवश्यक माना गया है। एतदर्थ ही आवश्यक की व्याख्या करने की प्रतिज्ञा प्रस्तुत सूत्र में की है। व्याख्या के रूप में भले ही सम्पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या न हो, केवल ग्रन्थ के नाम के पदों की व्याख्या की गई हो, तथापि व्याख्या की
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