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अनुयोगद्वारसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * २१९ *
जिस पद्धति को इसमें अपनाया गया है वही पद्धति सम्पूर्ण आगमों की व्याख्या में भी अपनाई गई है। यदि यह कह दिया जाय कि आवश्यक की व्याख्या के बहाने से ग्रन्थकार ने सम्पूर्ण आगमों के रहस्यों को समझाने का प्रयास किया है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ___ आगम के प्रारम्भ में आभिनिबोधिक आदि पाँच ज्ञानों का निर्देश करके श्रुतज्ञान का विस्तार से निरूपण किया है। क्योंकि श्रुतज्ञान का उद्देश (पढ़ने की आज्ञा), समुद्देश (पढ़े हुए का स्थिरीकरण), अनुज्ञा (अन्य को पढ़ाने की आज्ञा) एवं अनुयोग (विस्तार से व्याख्यान) होता है; जबकि शेष चार ज्ञानों का नहीं होता। अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के उद्देशादि होते हैं वैसे ही कालिक, उत्कालिक और आवश्यकसूत्र के भी होते हैं।
सर्वप्रथम यह चिन्तन किया गया है कि आवश्यक एक अंगरूप है या अनेक अंगरूप? एक श्रुतस्कन्ध है या अनेक श्रुतस्कन्ध? एक अध्ययनरूप है या अनेक अध्ययनरूप? एक उद्देशनरूप है या अनेक उद्देशनरूप? समाधान प्रस्तुत करते हुए कहा है कि आवश्यक न एक अंगरूप है, न अनेक अंगरूप, वह एक श्रुतस्कन्ध है और अनेक अध्ययनरूप है। उसमें न एक उद्देश है न अनेक। आवश्यक श्रुतस्कन्धाध्ययन का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए आवश्यक, श्रुत, स्कन्ध और अध्ययन इन चारों का पृथक्-पृथक् निक्षेप किया गया है। आवश्यक निक्षेप चार प्रकार का है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। किसी का भी आवश्यक यह नाम रख देना नाम-आवश्यक है।
किसी वस्तु की आवश्यक के रूप में स्थापना करने का नाम स्थापना-आवश्यक है। स्थापना-आवश्यक के चालीस प्रकार हैं-काष्ठकर्मजन्य, चित्रकर्मजन्य, वस्त्रकर्मजन्य, लेप्यकर्मजन्य, ग्रंथिकर्मजन्य, वेष्टकर्मजन्य, पूरिकर्मजन्य (धातु आदि को पिघलाकर साँचे में ढालना), संघातिकर्मजन्य (वस्त्रादि के टुकड़े जोड़ना), अक्षकर्मजन्य (पासा) और वराटककर्मजन्य (कौड़ी)। इनसे प्रत्येक के दो भेद हैं-एक रूप और अनेक रूप। पुनः सद्भाव-स्थापना और असद्भाव-स्थापना रूप दो भेद हैं। इस तरह स्थापना-आवश्यक के चालीस भेद होते हैं।
द्रव्य-आवश्यक के आगमतः और नोआगमतः ये दो भेद हैं। आवश्यकपद स्मरण कर लेना और उसका निर्दोष उच्चारणादि करना आगमतः द्रव्य-आवश्यक है। इसका विशेष स्पष्टीकरण करने के लिए सप्तनय की दृष्टि से
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