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________________ उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * १७ * -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.बाद में हुआ है। यह भी अधिक सम्भव है कि उत्तराध्ययन, दशवैकालिक को मूलसूत्र मानने का एक कारण यह भी रहा हो। ___ जैन आगम साहित्य में उत्तराध्ययन और दशवैकालिक का गौरवपूर्ण स्थान है। चाहे श्वेताम्बर परम्परा के आचार्य रहे हों, चाहे दिगम्बर परम्परा के, उन्होंने उत्तराध्ययन और दशवैकालिक का पुनः-पुनः उल्लेख किया है। कषायपाहुड की जयधवला टीका में तथा गोम्मटसार२° में क्रमशः गुणधर आचार्य ने और सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमिचन्द्र ने अंगबाह्य के चौदह प्रकार बताये हैं। उनमें सातवाँ दशवैकालिक है और आठवाँ उत्तराध्ययन है। नन्दीसूत्र में आचार्य देववाचक ने अंगबाह्य श्रुत के दो विभाग किये हैं। उनमें एक कालिक और दूसरा उत्कालिक है। कालिक सूत्रों की परिगणना में उत्तराध्ययन का प्रथम स्थान है और उत्कालिक सूत्रों की परिगणना में दशवैकालिक का प्रथम स्थान है। सामान्य रूप से मूलसूत्रों की संख्या चार है। मूलसूत्रों की संख्या के सम्बन्ध में विज्ञों के विभिन्न मत हम पूर्व बता चुके हैं। चाहे संख्या के सम्बन्ध में कितने ही मतभेद हों, पर सभी मनीषियों ने उत्तराध्ययन को मूलसूत्र माना है। उत्तराध्ययन की शब्द-मीमांसा 'उत्तराध्ययन' में दो शब्द हैं-उत्तर और अध्ययन। समवायांग में 'छत्तीसं उत्तरज्झयणाई' यह वाक्य मिलता है। प्रस्तुत वाक्य में उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययनों का प्रतिपादन नहीं किन्तु छत्तीस उत्तर अध्ययन प्रतिपादित किये गये हैं। नन्दीसूत्र में भी 'उत्तरज्झयणाणि' यह बहुवचनात्मक नाम प्राप्त है। उत्तराध्ययन के अन्तिम अध्ययन की अन्तिम गाथा में 'छत्तीसं उत्तरज्झाए' इस प्रकार बहुवचनात्मक नाम मिलता है। उत्तराध्ययननियुक्ति में भी उत्तराध्ययन का नाम बहुवचन में प्रयोग किया गया है।५ उत्तराध्ययनचूर्णि में छत्तीस उत्तराध्ययनों का एक श्रुतस्कंध माना है।६ तथापि उसका नाम चूर्णिकार ने बहुवचनात्मक माना है। बहुवचनात्मक नाम से यह विदित है कि उत्तराध्ययन अध्ययनों का एक योग मात्र है। यह एककर्तृक एक ग्रन्थ नहीं है। 'उत्तर' शब्द पूर्व की अपेक्षा से है। जिनदासगणी महत्तर ने इन अध्ययनों की तीन प्रकार से योजना की है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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