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*१६ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
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अंग
१०. बायीं भुजा = प्रश्नव्याकरण ११. ग्रीवा = विपाक १२. शिर = दृष्टिवाद
प्रस्तुत स्थापना में आचारांग और सूत्रकृतांग को मूल स्थानीय अर्थात् चरण स्थानीय माना है। दूसरे रूप में भी श्रुत-पुरुष की स्थापना की गई है। उस रेखांकन में आवश्यक, दशवैकालिक, पिण्डनियुक्ति और उत्तराध्ययन, इन चारों को मूल स्थानीय माना है। प्राचीन ज्ञान भण्डारों में श्रुत-पुरुष के अनेक चित्र प्राप्त हैं। द्वादश उपांगों की रचना होने के बाद श्रुत-पुरुष के प्रत्येक अंग के साथ एक-एक उपांग की कल्पना की गई है। क्योंकि अंगों के अर्थ को स्पष्ट करने वाला उपांग है। किस अंग का कौन-सा उपांग है, वह इस प्रकार प्रतिपादित किया गया है
उपांग आचारांग
औपपातिक सूत्रकृत
राजप्रश्नीय स्थानांग
जीवाभिगम समवाय
प्रज्ञापना भगवती
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ज्ञाताधर्मकथा
सूर्यप्रज्ञप्ति उपासकदशा
चन्द्रप्रज्ञप्ति अन्तकृद्दशा
निरयावलिया-कल्पिका अनुत्तरौपपातिकदशा
कल्पावतंसिका प्रश्नव्याकरण विपाक
पुष्पचूलिका दृष्टिवाद
वृष्णिदशा जिस समय पैंतालीस आगमों की संख्या स्थिर हो गई, उस समय श्रुत-पुरुष की जो आकृति बनाई गई है, उसमें दशवैकालिक और उत्तराध्ययन को मूल स्थान पर रखा गया है। पर यह श्रुत-पुरुष की आकृति का रेखांकन बहुत ही
पुष्पिका
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