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उत्तराध्ययन सूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन १५
डॉ. विण्टरनीत्ज और डॉ. ग्यारीनो ने (१) उत्तराध्ययन, (२) आवश्यक, (३) दशवैकालिक, तथा (४) पिण्डनिर्युक्ति को मूलसूत्र की संज्ञा दी है। डॉ. सुब्रिंग ने (१) उत्तराध्ययन, (२) दशवैकालिक, (३) आवश्यक, (४) पिण्डनिर्युक्ति, तथा (५) ओघनिर्युक्ति, इन पाँचों को मूलसूत्र बताया है । १५ स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नन्दी और अनुयोगद्वारसूत्र को मूलसूत्र मानती हैं।
श्रुत-पुरुष की कल्पना
मूलसूत्र विभाग की कल्पना का आधार श्रुत- पुरुष भी हो सकता है सर्वप्रथम जिनदासगणी महत्तर ने श्रुत-पुरुष की कल्पना की है । १६ श्रुत-पुरुष के शरीर में बारह अंग हैं, जैसे- प्रत्येक पुरुष के शरीर में दो पैर, दो जंघायें, दो उरु, दो गालार्ध (पेट और पीठ), दो भुजाएँ, ग्रीवा और सिर होते हैं, वैसे ही आगम साहित्य के बारह अंग हैं । अंगबाह्य श्रुत - पुरुष के उपांग स्थानीय हैं । प्रस्तुत परिकल्पना अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य, इन दो आगमिक वर्गों के आधार पर हुई है। इस वर्गीकरण में मूल और छेद को स्थान प्राप्त नहीं है । आचार्य हरिभद्र, जिनका समय विक्रम की आठवीं शताब्दी है और आचार्य मलयगिरि, जिनका समय विक्रम की तेरहवीं शताब्दी है, उन्होंने भी नन्दीसूत की अपनी वृत्तियों में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य को ही स्थान दिया है। आचार्य जिनदासगणी महत्तर के आदर्श को लेकर ही वे चले हैं। अंगप्रविष्ट श्रुत की स्थापना इस प्रकार है
१. दायाँ पैर
२. बायाँ पैर
३. दायीं जंघा
४. बायीं जंघा
५. दायाँ उरु
६. बायाँ उरु
७. उदर
८. पीठ
९. दायीं भुजा
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स्थानांग
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