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________________ * १४ * मूलसूत्र : एक परिशीलन उत्तराध्ययन, दशवैकालिक प्रभृति आगमों को मूलसूत्र अभिधा क्यों दी गई ? इस सम्बन्ध में विभिन्न मनीषियों ने विभिन्न कल्पनाएँ की हैं। प्रोफेसर विण्टरनीत्ज का अभिमत है-इन आगमों पर अनेक टीकाएँ हैं। इनसे मूल ग्रन्थ का पृथक्करण करने के लिए इन्हें मूलसूत्र कहा है। परन्तु उनका यह कथन उचित नहीं है, न उनका तर्क ही वजनदार है, क्योंकि उन्होंने मूलसूत्र की सूची में पिण्डनियुक्ति को भी माना है, जबकि उस पर अनेक टीकाएँ नहीं हैं। ___ डॉ. सारपेण्टियर, डॉ. ग्यारीनो और प्रोफेसर पटवर्धन° प्रभृति विद्वानों का यह अभिमत है-इन आगमों में भगवान महावीर के मूल शब्दों का संग्रह है इसलिए इन्हें मूलसूत्र कहा गया है। किन्तु उनका भी कथन युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि भगवान महावीर के मूल शब्दों के कारण ही किसी आगम को मूलसूत्र माना जाय तो सर्वप्रथम आचारांग के प्रथम श्रुतस्कंध को मूलसूत्र मानना चाहिए। क्योंकि पाश्चात्य विचारक डॉ. हर्मन जैकोबी आदि के अनुसार भगवान महावीर के मूल शब्दों का सबसे प्राचीन संकलन आचारांग में है। हमारे अपने अभिमतानुसार जिन आगमों में मुख्य रूप से श्रमण के आचार-सम्बन्धी मूलगुण, महाव्रत, समिति, गुप्ति आदि का निरूपण है और जो श्रमण-जीवनचर्या में मूल रूप से सहायक बनते हैं, जिन आगमों का अध्ययन श्रमण के लिए सर्वप्रथम अपेक्षित है, उन्हें मूलसूत्र कहा गया है। हमारे इस कथन का समर्थन इस बात से होता है कि पहले आगमों का अध्ययन आचारांग से प्रारम्भ होता था। जब आचार्य शय्यम्भव ने दशवैकालिकसूत्र का निर्माण किया तो सर्वप्रथम दशवैकालिक का अध्ययन कराया जाने लगा और उसके बाद उत्तराध्ययनसूत्र पढ़ाया जाने लगा।११ पहले आचारांग के 'शस्त्र-परिज्ञा' प्रथम अध्ययन से शैक्ष की उपस्थापना की जाती थी। पर जब दशवैकालिक की रचना हो गई तो उसके बाद उसके चतुर्थ अध्ययन से उपस्थापना की जाने लगी।२ मूलसूत्रों की संख्या के सम्बन्ध में भी ऐकमत्य नहीं है। समयसुन्दरगणी ने (१) दशवैकालिक, (२) ओघनियुक्ति, (३) पिण्डनियुक्ति, तथा (४) उत्तराध्ययन, ये चार मूलसूत्र माने हैं। भावप्रभसूरि ने (१) उत्तराध्ययन, (२) आवश्यक, (३) पिण्डनियुक्ति-ओघनियुक्ति, तथा (४) दशवैकालिक, ये चार मूलसूत्र माने हैं। प्रोफेसर वेबर, प्रोफेसर बूलर ने (१) उत्तराध्ययन, (२) आवश्यक, तथा (३) दशवैकालिक, इन तीनों को मूलसूत्र कहा है। डॉ. सारपेण्टियर, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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