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________________ उत्तराध्ययनसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन वर्तमान में उपलब्ध जैन आगम साहित्य को अंग, उपांग, मूल और छेद" इन चार वर्गों में विभक्त किया गया है । इस वर्गीकरण का उल्लेख समवायांग और नन्दीसूत्र में नहीं है । तत्त्वार्थभाष्य में सर्वप्रथम अंग के साथ उपांग शब्द का प्रयोग आचार्य उमास्वाति ने किया है।' उसके पश्चात् सुखबोधा समाचारी में अंगबाह्य के अर्थ में 'उपांग' शब्द का प्रयोग आचार्य श्रीचन्द्र ने किया । जिस अंग का जो उपांग है, उसका निर्देश 'विधिमार्ग-प्रपा' ग्रन्थ में आचार्य जिनप्रभ ने किया है । ३ मूल और छेदसूत्रों का विभाग किस समय हुआ ? यह साधिकार तो नहीं कहा जा सकता, पर यह स्पष्ट है कि आचार्य भद्रबाहु ने उत्तराध्ययन और दशवैकालिकनिर्युक्ति में इस सम्बन्ध में कोई भी चर्चा नहीं की है और न जिनदासगणी महत्तर ने ही अपनी उत्तराध्ययन तथा दशवैकालिक की चूर्णियों में इस सम्बन्ध में किंचिन्मात्र भी चिन्तन किया है । न आचार्य हरिभद्र ने दशवैकालिक वृत्ति में और न शान्त्याचार्य ने उत्तराध्ययन वृत्ति में मूलसूत्र के सम्बन्ध में चर्चा की है। इससे यह स्पष्ट है कि ग्यारहवीं शताब्दी तक 'मूलसूत्र' इस प्रकार का विभाग नहीं हुआ था। यदि विभाग हुआ होता तो निर्युक्ति, चूर्णि और वृत्ति में अवश्य ही निर्देश होता । मूलसूत्र : क्यों और कितने ? 'श्रावक विधि' ग्रन्थ के लेखक धनपाल ने, जिनका समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी है, ४५ आगमों का निर्देश किया है। विचारसारप्रकरण के लेखक प्रद्युम्नसूर ने भी ४५ आगमों का निर्देश किया है, जिनका समय तेरहवीं शताब्दी है। उन्होंने भी मूलसूत्र के रूप में विभाग नहीं किया है। आचार्य श्री प्रभाचन्द्र ने 'प्रभावक चरित्र' में सर्वप्रथम अंग, उपांग, मूल, छेद, यह विभाग किया है।" उसके बाद उपाध्याय समयसुन्दर जी ने 'समाचारी - शतक' में इसका उल्लेख किया है।" सारांश यह है कि 'मूलसूत' विभाग की स्थापना तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुई ऐसा प्रतीत होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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