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________________ * २१४ * मूलसूत्र : एक परिशीलन -.-.-.-. में महापुरुषों का वर्णन गण्डिकानुयोग में हुआ है। गण्डिकानुयोग की रचना समय-समय पर मूर्धन्य मनीषी तथा आचार्यों ने की। पंचकल्पचूर्णि२३ के अनुसार कालकाचार्य ने गण्डिकाएँ रची थीं, पर उन गण्डिकाओं को संघ ने स्वीकार नहीं किया। आचार्य ने संघ से निवेदन किया-मेरी गण्डिकाएँ क्यों स्वीकृत नहीं की गई हैं ? उन गण्डिकाओं में रही हुई त्रुटियाँ बतायी जायें, जिससे उनका परिष्कार किया जा सके। संघ के बहुश्रुत आचार्यों ने उन गण्डिकाओं का गहराई से अध्ययन किया और उन्होंने उन पर प्रामाणिकता की मुद्रा लगा दी। इससे यह स्पष्ट है-कालकाचार्य-जैसे प्रकृष्ट प्रतिभा सम्पन्न आचार्य की गण्डिकाएँ भी संघ द्वारा स्वीकृत होने पर ही मान्य की जाती थीं। इससे गण्डिकाओं की प्रामाणिकता सिद्ध होती है। अनुयोग का अर्थ व्याख्या है। व्याख्येय वस्तु के आधार पर अनुयोग के चार विभाग किये गये हैं-चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग।२४ दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ द्रव्यसंग्रह की टीका२५ में, पंचास्तिकाय२६ में, तत्त्वार्थवृत्ति२७ में इन अनुयोगों के नाम इस प्रकार मिलते हैं-प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानुयोग और द्रव्यानुयोग। श्वेताम्बर और दिगम्बर ग्रन्थों में नाम और कर्म में कुछ अन्तर अवश्य है पर भाव सभी का एक-सा है। चार भेद श्वेताम्बर दृष्टि से सर्वप्रथम चरणानुयोग है।२८ रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आचार्य समन्तभद्र२९ ने चरणानुयोग की परिभाषा करते हुए लिखा है-गृहस्थ और मुनियों के चारित्र की उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के विधान करने वाले अनुयोग को चरणानुयोग कहते हैं। द्रव्यसंग्रह की टीका में लिखा हैउपासकाध्ययन आदि में श्रावक का धर्म और मूलाचार, भगवती आराधना आदि में यति का धर्म जहाँ मुख्यता से कहा गया है, वह चरणानुयोग है।३० बृहद्रव्यसंग्रह, अनगारधर्मामृत३१ टीका आदि में भी चरणानुयोग की परिभाषा इसी प्रकार मिलती है। आचार-सम्बन्धी साहित्य चरणानुयोग में आता है। जिनदासगणी महत्तर३२ ने धर्मकथानुयोग की परिभाषा करते हुए लिखा है-सर्वज्ञोक्त अहिंसा आदि स्वरूप धर्म का जो कथन किया जाता है अथवा अनुयोग के विचार से जो धर्म-सम्बन्धी कथा कही जाती है, वह धर्मकथा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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