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________________ अनुयोगद्वारसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन *२१५ * -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.आचार्य हरिभद्र३३ ने भी अनुयोगद्वार की टीका में अहिंसा लक्षणयुक्त धर्म का जो आख्यान है, उसे धर्मकथा कहा है। महाकवि पुष्पदन्त३४ ने भी लिखा हैजो अभ्युदय, निःश्रेयस् की संसिद्धि करता है और सद्धर्म से जो निबद्ध है, वह सद्धर्मकथा है। धर्मकथानुयोग को ही दिगम्बर परम्परा में प्रथमानुयोग कहा है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार३५ में लिखा है-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का परमार्थज्ञान सम्यग्ज्ञान है, जिसमें एक पुरुष या त्रिषष्टि श्लाघनीय पुरुषों के पवित्र चरित्र में रत्नत्रय और ध्यान का निरूपण है, वह प्रथमानुयोग है। __गणितानुयोग गणित के माध्यम से जहाँ विषय को स्पष्ट किया जाता है, दिगम्बर परम्परा में इसके स्थान पर करणानुयोग यह नाम प्रचलित है। करणानुयोग का अर्थ है-लोक-अलोक के विभाग को, युगों के परिवर्तन को तथा चारों गतियों को दर्पण के सदृश प्रकट करने वाले सम्यक् ज्ञान को करणानुयोग कहते हैं।३६ करण शब्द के दो अर्थ हैं-(१) परिणाम, और (२) गणित के सूत्र। द्रव्यानुयोग-जो श्रुतज्ञान के प्रकाश में जीव-अजीव, पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्ष आदि तत्त्वों को दीपक के सदृश प्रकट करता है, वह द्रव्यानुयोग है।३७ जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में लिखा है३८-द्रव्य का द्रव्य में, द्रव्य के द्वारा अथवा द्रव्यहेतुक जो अनुयोग होता है, उसका नाम द्रव्यानयोग है। इसके अतिरिक्त द्रव्य का पर्याय के साथ अथवा द्रव्य का द्रव्य के ही साथ जो योग (सम्बन्ध) होता है, वह भी द्रव्यानुयोग है। इसी तरह बहुवचन-द्रव्यों का द्रव्यों में भी समझना चाहिए। आगम-साहित्य में कहीं संक्षेप से और कहीं विस्तार से इन अनुयोगों का वर्णन है। आर्य वज्र तक आगमों में अनुयोगात्मक दृष्टि से पृथक्ता नहीं थी। प्रत्येक सूत्र की चारों अनुयोगों द्वारा व्याख्या की जाती थी। आचार्य भद्रबाहु३९ ने इस सम्बन्ध में लिखा है-कालिकश्रुत अनुयोगात्मक व्याख्या की दृष्टि से अपृथक् थे। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं-उनमें चरणकरणानुयोग प्रभृति अनुयोग चतुष्टय के रूप में अविभक्तता थी। आर्य वज्र के पश्चात् कालिकसूत्र और दृष्टिवाद की अनुयोगात्मक पृथक्ता (विभक्तता) की गई। ___ आचार्य मलयगिरि४० ने प्रस्तुत विषय को स्पष्ट करते हुए लिखा है-आर्य वज्र तक श्रमण तीक्ष्ण बुद्धि के धनी थे, अतः अनुयोग की दृष्टि से अविभक्त रूप से व्याख्या प्रचलित थी। प्रत्येक सूत्र में चरणकरणानुयोग आदि का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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