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* २१२ * मूलसूत्र : एक परिशीलन वर्गीकरण आर्यरक्षित ने अनुयोगों के आधार पर किया है। उन्होंने सम्पूर्ण आगम-साहित्य को चार अनुयोगों में बाँटा है। __ अनुयोग शब्द पर चिन्तन करते हुए प्राचीन साहित्य में लिखा है"अणुओयणमणुयोगो।"-अनुयोजन को अनुयोग कहा है।१० 'अनुयोजन' यहाँ पर जोड़ने व संयुक्त करने के अर्थ में व्यवहृत हुआ है। जिससे एक-दूसरे को सम्बन्धित किया जा सके। इसी अर्थ को स्पष्ट करते हुए टीकाकार ने लिखा है-जो भगवत् कथन से संयोजित करता है, वह 'अनुयोग' है। अभिधानराजेन्द्रकोष में लिखा है-लघु सूत्र के साथ महान् अर्थ का योग करना अनुयोग है।१२ अनुयोग शब्द : एक चिन्तन
अनुयोग शब्द 'अनु' और 'योग' के संयोग से निर्मित हुआ है। अनु उपसर्ग है। यह अनुकूल अर्थवाचक है। सूत्र के साथ अनुकूल, अनुरूप या सुसंगत संयोग अनुयोग है। बृहत्कल्प१३ में लिखा है कि अनु का अर्थ पश्चाद्भाव या स्तोक है। उस दृष्टि से अर्थ के पश्चात् जायमान या स्तोक सूत्र के साथ जो योग है, वह अनुयोग है। आचार्य मलयगिरि१४ के अनुसार अर्थ के साथ सूत्र की जो अनुकूल योजना की जाती है, उसका नाम अनुयोग है। अथवा सूत्र का अपने अभिधेय में जो योग होता है, वह अनुयोग है। यही बात आचार्य हरिभद्र,१५ आचार्य अभयदेव,१६ आचार्य शान्तिचन्द१७ ने लिखी है। आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण का भी यही अभिमत है।८
जैन आगम-साहित्य में अनुयोग के विविध भेद-प्रभेद हैं। नन्दी में आचार्य देववाचक ने अनुयोग के दो विभाग किये हैं। वहाँ पर दृष्टिवाद के परिकर्म, सूत्र, पूर्वगत, अनुयोग और चूलिका ये पाँच भेद किये गये हैं।१९ उसमें 'अनुयोग' चतुर्थ है। अनुयोग के 'मूल प्रथमानुयोग' और 'गण्डिकानुयोग' ये दो भेद किए गए हैं।२०
मूल प्रथमानुयोग क्या है ? इस प्रश्न पर चिन्तन करते हुए आचार्य ने कहा"मूल प्रथमानुयोग में अर्हत् भगवान को सम्यक्त्व-प्राप्ति के भव से पूर्वभव, देवलोकगमन, आयुष्य, च्यवन, जन्म, अभिषेक, राज्यश्री, प्रव्रज्या, तप, केवलज्ञान की उत्पत्ति, तीर्थ-प्रवर्तन, शिष्य-समुदाय, गण-गणधर, आर्यिकाएँ, प्रवर्तिनी, चतुर्विध संघ का परिमाण, सामान्य केवली, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, सम्यक् श्रुतज्ञानी, वादी, अनुत्तर विमान में गये हुए मुनि,
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