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________________ * १९२ * मूलसूत्र : एक परिशीलन आराधना की टीका में इस बात का उल्लेख किया है। यह टीका उपलब्ध नहीं है। आचार्य हरिभद्र की टीका का अनुसरण करके तिलकाचार्य ने भी एक टीका लिखी है, इनका समय तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी है। माणिक्यशेखर ने दशवैकालिक पर नियुक्तिदीपिका लिखी है, माणिक्यशेखर का समय पन्द्रहवीं शताब्दी है। समयसुन्दर ने दशवकालिक पर दीपिका लिखी है, इनका समय विक्रम संवत् १६११ से १६८१ तक है। विनयहंस ने दशवैकालिक पर वृत्ति लिखी है, इनका समय विक्रम संवत् १५७३ है। रामचन्द्रसूरि ने दशवैकालिक पर वार्तिक लिखा है, इनका समय विक्रम संवत् १६७८ है। इसी प्रकार शान्तिदेवसूरि, सोमविमलसूरि, राजचन्द्र, पारसचन्द्र, ज्ञानसागर प्रभृति मनीषियों ने भी दशवैकालिक पर टीकाएँ लिखी हैं। पायचन्द्रसूरि और धर्मसिंह मुनि, जिनका समय विक्रम की अठारहवीं शताब्दी है, ने गुजराती-राजस्थानी मिश्रित भाषा में टब्बा लिखा। टब्बे में टीकाओं की तरह नया चिन्तन और स्पष्टीकरण नहीं है। इस प्रकार समय-समय पर दशवैकालिक पर आचार्यों ने विराट् व्याख्या-साहित्य लिखा है। पर यह सत्य है कि अगस्त्यसिंह स्थविर विरचित चूर्णि, जिनदासगणी महत्तर विरचित चूर्णि और आचार्य हरिभद्रसूरि विरचित वृत्ति इन तीनों का व्याख्या-साहित्य में विशिष्ट स्थान है। परवर्ती विज्ञों ने अपनी वृत्तियों में इनके मौलिक चिन्तन का उपयोग किया है। टब्बे के पश्चात् अनुवाद युग का प्रारम्भ हुआ। आचार्य अमोलक ऋषि जी ने दशवैकालिक का हिन्दी अनुवाद लिखा। उसके बाद अनेक विज्ञों के हिन्दी अनुवाद प्रकाश में आए। इसी तरह गुजराती और अंग्रेजी भाषा में भी अनुवाद हुए तथा आचार्य आत्माराम जी म. ने दशवैकालिक पर हिन्दी में विस्तृत टीका लिखी। यह टीका मूल के अर्थ को स्पष्ट करने में सक्षम है। अनुसंधान युग में आचार्य तुलसी के नेतृत्व में मुनि श्री नथमल जी ने 'दसवेआलियं' ग्रन्थ तैयार किया, जिसमें मूल पाठ के साथ विषय को स्पष्ट करने के लिए शोध-प्रधान टिप्पण दिए गये हैं। इस प्रकार अतीत से वर्तमान तक दशवैकालिक पर व्याख्याएँ और विवेचन लिखा गया है, जो इस आगम की लोकप्रियता का ज्वलन्त उदाहरण प्राचीन युग में मुद्रण का अभाव था इसलिए ताड़पत्र या कागज पर आगमों का लेखन होता रहा। मुद्रण युग प्रारम्भ होने पर आगमों का मुद्रण प्रारम्भ हुआ। सर्वप्रथम सन् १९०० में हरिभद्र और समयसुन्दर की वृत्ति के साथ दशवैकालिक का प्रकाशन भीमसी माणेक (बम्बई) ने किया। उसके पश्चात् सन् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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