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दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन १९१
तृतीय अध्ययन की वृत्ति में महत्, क्षुल्लक पदों की व्याख्या है । पाँच आचार, चार कथाओं का उदाहरण सहित विवेचन है।
चतुर्थ अध्ययन की वृत्ति में जीव के स्वरूप का विश्लेषण किया गया है। पाँच महाव्रत, छठा रात्रि - भोजन विरमणव्रत, श्रमणधर्म की दुर्लभता का चित्रण है।
पञ्चम अध्ययन की वृत्ति में आहारविषयक विवेचन है।
छठे अध्ययन की वृत्ति में व्रतषट्क, कायषट्क, अकल्प, गृहिभाजन, पर्यङ्क, निषद्या, स्नान और शोभा-वर्जन, इन अष्टादश स्थानों का निरूपण है, जिनके परिज्ञान से ही श्रमण अपने आचार का निर्दोष पालन कर सकता है।
सातवें अध्ययन की व्याख्या में भाषा-शुद्धि पर चिन्तन किया है ।
आठवें अध्ययन की व्याख्या में आचार में प्रणिधि की प्रक्रिया और उसके फल पर प्रकाश डाला है।
नौवें अध्ययन में विनय के विविध प्रकार और उससे होने वाले फल का प्रतिपादन किया है।
दसवें अध्ययन की वृत्ति में सुभिक्षु का स्वरूप बताया है। चूलिकाओं में भी धर्म के रतिजनक, अरतिजनक कारणों पर प्रकाश डाला गया है I
प्रस्तुत वृत्ति में अनेक प्राकृत कथानक व प्राकृत संस्कृत भाषा के उद्धरण भी आये हैं । दार्शनिक चिन्तन भी यत्र-तत्र मुखरित हुआ है। आचार्य हरिभद्र संविग्न - पाक्षिक थे । वह काल चैत्यवास के उत्कर्ष का काल था । चैत्यवासी और संविग्न-पक्ष में परस्पर संघर्ष की स्थिति थी । चैत्यवासियों के पास पुस्तकों का संग्रह था। संविग्न-पक्ष के पास प्रायः पुस्तकों का अभाव था। चैत्यवासी उनको पुस्तकें नहीं देते थे । वे तो संविग्न-पक्ष को मिटाने पर तुले हुए थे, यही कारण है कि आचार्य हरिभद्र को अपनी वृत्ति लिखते समय अगस्त्यसिंहचूर्णि आदि उपलब्ध न हुई हो। यदि उपलब्ध हुई होती तो वे उसका अवश्य ही संकेत करते।
आचार्य हरिभद्र के पश्चात् अपराजितसूरि ने दशवैकालिक पर एक वृत्ति लिखी, जो वृत्ति 'विजयोदया' नाम से प्रसिद्ध है। अपराजितसूरि यापनीय संघ थे। इनका समय विक्रम की आठवीं शताब्दी है । उन्होंने अपने द्वारा रचित
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