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________________ १९० मूलसूत्र : एक परिशीलन नियुक्ति - साहित्य में आगमों के शब्दों की व्याख्या और व्युत्पत्ति है। भाष्यसाहित्य में आगमों के गम्भीर भावों का विवेचन है । चूर्णि - साहित्य में निगूढ़ भावों को लोककथाओं तथा ऐतिहासिक वृत्तों के आधार से समझाने का प्रयास है तो टीका - साहित्य में आगमों का दार्शनिक दृष्टि से विश्लेषण है। टीकाकारों ने प्राचीन निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णि - साहित्य का अपनी टीकाओं में प्रयोग किया ही है और साथ ही नये हेतुओं का भी उपयोग किया है। टीकाएँ संक्षिप्त और विस्तृत दोनों प्रकार की हैं। टीकाओं के नामों का प्रयोग भी आचार्यों ने किया है, जैसे- टीका, वृत्ति, विवृत्ति, विवरण, विवेचन, व्याख्या, वार्तिक, दीपिका, अवचूरि, अवचूर्णि, पंजिका, टिप्पणक, पर्याय, स्तवक, पीठिका, अक्षरार्द्ध । इन टीकाओं में केवल आगमिक तत्त्वों पर ही विवेचन नहीं हुआ अपितु उस युग की सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक परिस्थितियों का भी इनसे सम्यक् परिज्ञान हो जाता है । संस्कृत टीकाकारों में आचार्य हरिभद्र का नाम सर्वप्रथम है। वे संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पण्डित थे । उनका सत्ता- समय विक्रम संवत् ७५७ से ८२८ है। प्रभावकचरित के अनुसार उनके दीक्षागुरु आचार्य जिनभट थे किन्तु स्वयं आचार्य हरिभद्र ने उनका गुच्छपति गुरु के रूप में उल्लेख किया है और जिनदत्त को दीक्षागुरु माना है । ,२४६ याकिनी महत्तरा उनकी धर्ममाता थीं, उनका कुल विद्याधर था । उन्होंने अनेक आगमों पर टीकाएँ लिखी हैं, वर्तमान में ये आगम टीकाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं- नन्दीवृत्ति, अनुयोगद्वारवृत्ति, प्रज्ञापनाप्रदेशव्याख्या, आवश्यकवृत्ति और दशवैकालिकवृत्ति । दशवैकालिकवृत्ति के निर्माण का मूल आधार दशवैकालिकनिर्युक्ति है। शिष्यबोधिनीवृत्ति या बृहद्वृत्ति ये दो नाम इस वृत्ति के उपलब्ध हैं । वृत्ति के प्रारम्भ में दशवैकालिक का निर्माण कैसे हुआ ? इस प्रश्न के समाधान में आचार्य शय्यम्भव का जीवन-वृत्त दिया है । तप के वर्णन में आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्लध्यान का निरूपण किया गया है। अनेक प्रकार के श्रोता होते हैं, उनकी दृष्टि से प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, विभिन्न अवयवों की उपयोगिता, उनके दोषों की शुद्धि का प्रतिपादन किया है। द्वितीय अध्ययन की वृत्ति में श्रमण, पूर्व, काम, पद आदि शब्दों पर चिन्तन करते हुए तीन योग, तीन करण, चार संज्ञा, पाँच इन्द्रियाँ, पाँच स्थावर, दस श्रमणधर्म, अठारह शीलांगसहस्र का निरूपण किया गया है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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