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दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * १८७* _ 'रात्रि-भोजन विरमणव्रत' को मूलगूण माना जाय या उत्तरगुण? इस प्रश्न के उत्तर में कहा है कि यह उत्तरगुण ही है किन्तु मूलगुण की रक्षा का हेतु होने से मूलगुण के साथ कहा गया है। वस्त्र-पात्रादि संयम और लज्जा के लिए रखे जाते हैं अतः वे परिग्रह नहीं हैं। मूर्छा ही परिग्रह है। चोलपट्टकादि का भी उल्लेख है।
धर्म की व्यावहारिकता का समर्थन करते हुए कहा है-अनन्तज्ञानी भी गुरु की उपासना अवश्य करे (९/१/११)।
'देहदुक्खं महाफलं' की व्याख्या में कहा है-“दुक्खं एवं साहिजमाणं मोक्खपज्जवसाणफलत्तेण महाफलं।" बौद्धदर्शन ने चित्त को ही नियंत्रण में लेना आवश्यक माना तो उसका निराकरण करते हुए कहा-“काय का भी नियंत्रण आवश्यक है।"
दार्शनिक विषयों की चर्चाएँ भी यत्र-तत्र हुई हैं। प्रस्तुत चूर्णि में तत्त्वार्थसूत्र, आवश्यकनियुक्ति, ओघनियुक्ति, व्यवहारभाष्य, कल्पभाष्य आदि ग्रन्थों का भी उल्लेख हुआ है। दशवैकालिकचूर्णि (जिनदास) __ चूर्णि-साहित्य के निर्माताओं में जिनदासगणी महत्तर का मूर्धन्य स्थान है। जिनदासगणी महत्तर के जीवन-वृत्त के सम्बन्ध में विशेष सामग्री अनुपलब्ध है। विज्ञों का अभिमत है कि चूर्णिकार जिनदासगणी महत्तर भाष्यकार जिनभद्र क्षमाश्रमण के पश्चात् और आचार्य हरिभद्र के पहले हुए हैं। क्योंकि भाष्य की अनेक गाथाओं का उपयोग चूर्णियों में हुआ है। आचार्य हरिभद्र ने अपनी वृत्तियों में चूर्णियों का उपयोग किया है। आचार्य जिनदासगणी का समय विक्रम संवत् ६५० से ७५० के मध्य होना चाहिए। नंदीचूर्णि के उपसंहार में उसका रचनासमय शक संवत् ५९८ अर्थात् विक्रम संवत् ७३३ है-इससे भी यही सिद्ध होता है। आचार्य जिनदासगणी महत्तर की दशवैकालिकनियुक्ति के आधार पर दशवैकालिकचूर्णि लिखी गई है। यह चूर्णि संस्कृत-मिश्रित प्राकृत भाषा में रचित है, किन्तु संस्कृत कम और प्राकृत अधिक है।
प्रथम अध्ययन में एकक, काल, द्रुम, धर्म आदि पदों का निक्षेप दृष्टि से चिन्तन किया है। आचार्य शय्यम्भव का जीवन-वृत्त भी दिया है। दस प्रकार के श्रमणधर्म, अनुमान के विविध अवयव आदि पर प्रकाश डाला है।
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