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* १८६ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
अपनी वृत्ति को चूर्णि की संज्ञा प्रदान की है-“चुण्णिसमासवयणेण दसकालियं परिसमत्तं।" ____ अगस्त्यसिंह ने अपनी चूर्णि में सभी महत्त्वपूर्ण शब्दों की व्याख्या की है। इस व्याख्या के लिए उन्होंने विभाषा२४३ शब्द का प्रयोग किया है। बौद्ध साहित्य में सूत्र-मूल और विभाषा-व्याख्या के ये दो प्रकार हैं। विभाषा का मुख्य लक्षण है-शब्दों के जो अनेक अर्थ होते हैं, उन सभी अर्थों को बताकर, प्रस्तुत में जो अर्थ उपयुक्त हो उसका निर्देश करना। प्रस्तुत चूर्णि में यह पद्धति अपनाने के कारण इसे 'विभाषा' कहा गया है, जो सर्वथा उचित है।
चूर्णि-साहित्य की यह सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि अनेक दृष्टान्तों व कथाओं के माध्यम से मूल विषय को स्पष्ट किया जाता है। अगस्त्यसिंह स्थविर ने अपनी चूर्णि में अनेक ग्रन्थों के अवतरण दिए हैं जो उनकी बहुश्रुतता को व्यक्त करते हैं।
मूल आगम-साहित्य में श्रद्धा की प्रमुखता थी। नियुक्ति-साहित्य में अनुमानविद्या या तर्कविद्या को स्थान मिला। उसका विशदीकरण प्रस्तुत चूर्णि में हुआ है। उनके पश्चात् आचार्य अकलंक आदि ने इस विषय को आगे बढ़ाया है। अगस्त्यसिंह के सामने दशवैकालिक की अनेक वृत्तियाँ थीं, सम्भव है वे वृत्तियाँ या व्याख्याएँ मौखिक रही हों, इसलिए उपदेश शब्द का प्रयोग लेखक ने किया है। 'भद्दियायरि ओवएस' और 'दत्तिलायरि ओवएस' की उन्होंने कई बार चर्चा की है। यह सत्य है कि दशवैकालिक की वृत्तियाँ प्राचीनकाल से ही प्रारम्भ हो चुकी थीं। आचार्य अपराजित जो यापनीय थे, उन्होंने दशवैकालिक की विजयोदया नामक टीका लिखी थी।४४ पर यह टीका स्थविर अगस्त्यसिंह के समक्ष नहीं थी। अगस्त्यसिंह ने अपनी चूर्णि में अनेक मतभेद या व्याख्यान्तरों का भी उल्लेख किया है।२४५
ध्यान का सामान्य लक्षण ‘एगग्ग चिन्ता-निरोहो झाणं' की व्याख्या में कहा है कि एक आलम्बन की चिन्ता करना, यह छद्मस्थ का ध्यान है। योग का निरोध केवली का ध्यान है, क्योंकि केवली को चिन्ता नहीं होती।
ज्ञानाचरण का स्पष्टीकरण करते हुए कहा है कि प्राकृत भाषानिबद्ध सूत्र का संस्कृत रूपान्तर नहीं करना चाहिए क्योंकि व्यञ्जन में विसंवाद करने पर अर्थ-विसंवाद होता है।
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