________________
१८० मूलसूत्र : एक परिशीलन
" चक्खुना संवरो साधु, साधु सोतेन संवरो । घाणेन संवरो साधु, साधु जिह्वाय संवरो ॥ कायेन संवरो साधु, साधु वाचाय संवरो । मनसा संवरो साधु, साधु सब्बत्थ संवरो ॥ सब्बत्थ संवुतो भिक्खु, सब्बदुक्खा पमुच्चति । " " हत्थसंयतो पादसंयतो, वाचाय संयतो संयतुत्तमो । अज्झत्तरतो समाहितो, एको सन्तुसितो तमाहु भिक्खुं ॥”
इस प्रकार दशवैकालिक में आयी हुई गाथाएँ कहीं पर भावों की दृष्टि से तो कहीं विषय की दृष्टि से और कहीं पर भाषा की दृष्टि से वैदिक और बौद्ध परम्परा के ग्रन्थों के साथ समानता रखती हैं। कितनी ही गाथाएँ आचारांग चूलिका के साथ विषय और शब्दों की दृष्टि से अत्यधिक साम्य रखती हैं । उनका कोई एक ही स्रोत होना चाहिए। इसके अतिरिक्त दशवैकालिक की अनेक गाथाएँ अन्य जैनागमों में आई हुई गाथाओं के साथ मिलती हैं। पर हमने विस्तारभय से उनकी तुलना नहीं दी है। समन्वय की दृष्टि से जब हम गहराई से अवगाहन करते हैं तो ज्ञान होता है-अनन्त सत्य को व्यक्त करने में चिन्तकों का अनेक विषयों में एकमत रहा है।
- धम्मपद २५/१-३
व्याख्या - साहित्य
दशवैकालिक पर आज तक जितना भी व्याख्या - साहित्य लिखा गया है, उस साहित्य को छह भागों में विभक्त किया जा सकता है - निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि, संस्कृत टीका, लोकभाषा में टब्बा और आधुनिक शैली से संपादन । निर्युक्ति प्राकृत भाषा में पद्यबद्ध टीकाएँ हैं, जिनमें मूल ग्रन्थ के प्रत्येक पद की व्याख्या न करके मुख्य रूप से पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या की गई है। निर्युक्ति की व्याख्या - शैली निक्षेप पद्धति पर आधृत है । एक पद के जितने भी अर्थ होते हैं उन्हें बताकर जो अर्थ ग्राह्य है उसकी व्याख्या की गई है और साथ ही अप्रस्तुत का निरसन भी किया गया है। यों कह सकते हैं -सूत्र और अर्थ का निश्चित सम्बन्ध बताने वाली व्याख्या निर्युक्ति है । २२३ सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान् शर्पेण्टियर ने लिखा है-निर्युक्तियाँ अपने प्रधान भाग के केवल इण्डेक्स का काम करती हैं, ये सभी विस्तारयुक्त घटनावलियों का संक्षेप में उल्लेख करती हैं । २२४ डॉ. घाटके ने नियुक्तियों को तीन विभागों में विभक्त किया है - २२५
www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only