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________________ दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन १८१ (१) मूल निर्युक्तियाँ - जिन नियुक्तियों पर काल का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा और उनमें अन्य कुछ भी मिश्रण नहीं हुआ, जैसे- आचारांग और सूत्रकृतांग की निर्युक्तियाँ। (२) जिनमें मूल भाष्यों का सम्मिश्रण हो गया है तथापि वे व्यवच्छेद्य हों, जैसे- दशवैकालिक और आवश्यकसूत्र की नियुक्तियाँ । (३) वे निर्युक्तियाँ, जिन्हें आजकल भाष्य या बृहद्भाष्य कहते हैं । जिनमें मूल और भाष्य का इतना अधिक सम्मिश्रण हो गया है कि उन दोनों को पृथक्-पृथक् नहीं किया जा सकता, जैसे- निशीथ आदि की नियुक्तियाँ । प्रस्तुत विभाग वर्तमान में जो निर्युक्ति-साहित्य प्राप्त है, उसके आधार पर किया गया है। जैसे यास्क महर्षि ने वैदिक पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या के लिए निघण्टु भाष्य रूप निरुक्त लिखा, उसी प्रकार जैन पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या के लिए आचार्य भद्रबाहु ने निर्युक्तियाँ लिखीं। निर्युक्तिकार भद्रबाहु का समय विक्रम संवत् ५६२ के लगभग है और निर्युक्तियों का समय ५०० से ६०० (वि. सं.) के मध्य का है। दस आगमों पर नियुक्तियाँ लिखी गईं, उनमें एक नियुक्ति दशवैकालिक पर भी है। डॉ. घाटके के अभिमतानुसार ओघनिर्युक्ति और पिण्डनिर्युक्ति क्रमशः दशवैकालिकनिर्युक्ति और आवश्यकनियुक्ति की उपशाखाएँ हैं। पर डॉ. घाटके की बात से सुप्रसिद्ध टीकाकार मलयगिरि सहमत नहीं हैं। उनके मंतव्यानुसार पिण्डनिर्युक्ति दशवैकालिकनिर्युक्ति का ही एक अंश है। यह बात उन्होंने पिण्डनिर्युक्ति की टीका में स्पष्ट की है। आचार्य मलयगिरि दशवैकालिकनियुक्ति को चतुर्दशपूर्वधर आचार्य भद्रबाहु की कृति मानते हैं, किन्तु पिण्डैषणा नामक पाँचवें अध्ययन पर वह नियुक्ति बहुत ही विस्तृत हो गई, जिससे पिण्डनिर्युक्ति को स्वतंत्र नियुक्ति के रूप में स्थान दिया गया। इससे यह स्पष्ट है कि पिण्डनिर्युक्ति दशवैकालिकनिर्युक्ति का ही एक विभाग है । आचार्य मलयगिरि ने इस सम्बन्ध में अपना तर्क दिया है - पिण्डनिर्युक्ति दशवैकालिकनिर्युक्ति के अन्तर्गत होने के कारण ही इस ग्रन्थ के आदि में नमस्कार नहीं किया गया है और दशवैकालिकनियुक्ति के मूल के आदि में नियुक्तिकार ने नमस्कारपूर्वक ग्रन्थ को प्रारम्भ किया है। २२६ गहराई से चिन्तन करने पर ज्ञात होता है कि आचार्य मलयगिरि का तर्क अधिक वजनदार नहीं है। केवल नमस्कार न करने के कारण ही पिण्डनिर्युक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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