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________________ दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन १७९ “न च कत्थिता सिया भिक्खू, न च वाचं पयुतं भासेय्य । पागब्भियं न सिक्खेय्य, कथं विग्गाहिकं न कथयेय्य ॥” - सुत्तनिपात, तुवटक सुत्तं ५२/१६ भिक्षु धर्मरत्न ने चतुर्थ चरण का अर्थ लिखा है- कलह की बात न करे । धर्मानन्द कौसम्बी ने अर्थ किया कि भिक्षु को वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहिए। दशवैकालिक के दसवें अध्ययन की ग्यारहवीं गाथा में भिक्षु की परिभाषा इस प्रकार की गई है " जो सहइ हु गामकंटए, अक्कोसपहारतज्ज्रणाओ य । भयभेरवसद्दसंपहासे, समसुहदुक्खसहे य जे स भिक्खु ॥” - दशवैकालिक १०/११ जो काँटे के समान चुभने वाले इन्द्रिय-विषयों, आक्रोश-वचनों, प्रहारों, तर्जनाओं और बेताल आदि के अत्यन्त भयानक शब्दयुक्त अट्टहासों को सहन करता है तथा सुख और दुःख को समभावपूर्वक सहन करता है वह भिक्षु है । सुत्तनिपात की निम्न गाथाओं से तुलना करें Jain Education International “भिक्खुनो विजिगुच्छतो, भजतो रित्तमासनं । रुक्खमूलं सुसानं वा, पब्बतानं गुहासु वा ॥ उच्चावचेसु सयनेसु, कीवन्तो तत्थ भेरवा । येहि भिक्खु न वेधेय्य, निग्घोसे सयनासने ॥" -सुत्तनिपात ५४/४-५ दशवैकालिक के दसवें अध्ययन की पन्द्रहवीं गाथा है" हत्थसंजए पायसंजए, वायसंजए संजइंदिए । अज्झप्परए सुसमाहियप्पा, सुत्तत्थं च वियाणई जे स भिक्खू ॥" - दशवैकालिक १०/१५ जो हाथों से संयत है, पैरों से संयत है, वाणी से संयत है, इन्द्रियों से संयत है, अध्यात्म में रत है, भलीभाँति समाधिस्थ है और जो सूत्र और अर्थ को यथार्थ रूप से जानता है वह भिक्षु है । धम्मपद में भिक्षु के लक्षण निम्न गाथा में आए हैं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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