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________________ * १७८ मूलसूत्र : एक परिशीलन धम्मपद में यही उपमा इस प्रकार आई है “यो सासनं अरहतं, अरियानं धम्मजीविनं। पटिक्कोसति दुम्मेधो, दिलुि निस्साय पापिकं॥ फलानि कट्ठकस्सेव, अत्तयञ्जा फुल्लति॥" -धम्मपद १२/८ जो दुर्बुद्धि मनुष्य पापमयी दृष्टि का आश्रय लेकर अरहन्तों तथा धर्मनिष्ठ आर्य पुरुषों के शासन की अवहेलना करता है, वह आत्मघात के लिए बाँस के फल की तरह प्रफुल्लित होता है। दशवैकालिक के दसवें अध्ययन की आठवीं गाथा में भिक्षु के जीवन की परिभाषा इस प्रकार दी है "तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइमं लभित्ता। होही अट्ठो सुए परे वा तं, न निहे न निहावए जे स भिक्खू॥" -दशवैकालिक १०/८ पूर्वोक्त विधि से विविध अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को प्राप्त कर, यह कल या परसों काम आएगा, इस विचार से जो न सन्निधि (संचय) करता है और न कराता है वह भिक्षु है। सुत्तनिपात में यही बात इस रूप में झंकृत हुई है “अन्नानमथो पानानं, खादनीयानमयोऽपि वत्थानं। लद्धा न सन्निधि कयिरा, न च परित्तसेतानि अलभमानो॥" -सुत्तनिपात ५२-१० दशवैकालिक के दसवें अध्ययन की दसवीं गाथा में भिक्षु की जीवनचर्या का महत्त्व बताते हुए कहा है "न य वुग्गहियं कहं कहेजा, न य कुप्पे निहुइंदिए पसंते। संजमधुवजोगजुत्ते उवसंते, अविहेडए जे स भिक्खू॥" -दशवैकालिक १०/१० जो कलहकारी कथा नहीं करता, जो कोप नहीं करता, जिसकी इन्द्रियाँ अनुद्धत हैं, जो प्रशान्त है, जो संयम में ध्रुवयोगी है, जो उपशान्त है, जो दूसरों को तिरस्कृत नहीं करता वह भिक्षु है। भिक्षु को शिक्षा देते हुए सुत्तनिपात में प्रायः यही शब्द कहे गए हैं-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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