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________________ दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन १७७ साधु काल से निकले, बिना काल के नहीं निकले । अकाल में तो निकलना ही नहीं चाहिये, चाहे अकेला हो या बहुतों के साथ हो । दशवैकालिक के छट्ठे अध्ययन की दसवीं गाथा है "सव्वे जीवा वि इच्छन्ति, जीविडं न मरिज्जिउं । तम्हा पाणवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥” - दशवैकालिक ६/१० सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई भी नहीं चाहता, इसलिए प्राणिवध घोर पाप का कारण है अतः निर्ग्रन्थ उसका परिहार करते हैं 1 यही स्वर संयुत्तनिकाय में इस रूप में झंकृत हुआ है "सब्बा दिसा अनुपरिगम्म चेतसा, नेवज्झगा पियतरमत्तना क्वचि । एवं पियो पुथु अंत्ता परेसं, तस्मा न हिंसे परमत्तकामो ॥" - संयुत्तनिकाय १/३/८ दशवैकालिक के आठवें अध्ययन की अड़तीसवीं गाथा में क्रोध को शान्त करने का उपाय बताते हुए कहा है "उवसमेण हणे कोहं ।" - दशवैकालिक ८/३८ - उपशम से क्रोध का हनन करो। तुलना कीजिए 'धम्मपद' क्रोध वर्ग के तीसरे पद से"अक्कोधेन जिने कोधं ।" - अक्रोध से क्रोध को जीतो । दशवैकालिक के नौवें अध्ययन के प्रथम उद्देशक की प्रथम गाथा में बताया है कि जो शिष्य कषाय व प्रमाद के वशीभूत होकर गुरु के सन्निकट शिक्षा ग्रहण नहीं करता, उसका अविनय उसके लिए घातक होता है Jain Education International -धम्मपद, क्रोधवर्ग ३ “थंभा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे | सो चेव उ तस्स अभूइभावो, फलं व कीयस्स वहाय होइ ॥ " - दशवैकालिक ९/१/१ 1 जो मुनि गर्व, क्रोध, माया या प्रमादवश गुरु के समीप विनय की शिक्षा नहीं लेता वही (विनय की अशिक्षा) उसके विनाश के लिए होती है । जैसे कीचक (बाँस) का फल उसके विनाश के लिए होता है, अर्थात् हवा से शब्द करते हुए बाँस को कीचक कहते हैं, वह फल लगने पर सूख जाता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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