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________________ * १७६ मूलसूत्र : एक परिशीलन "योगयुक्तो विशुद्धात्मा, विजितात्मा जितेन्द्रियः । सर्वभूतात्मभूतात्मा, कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥" - गीता, अध्याय ५, श्लोक ७ योग से सम्पन्न जितेन्द्रिय और विशुद्ध अन्तःकरण वाला एवं सम्पूर्ण प्राणियों को आत्मा के समान अनुभव करने वाला निष्काम कर्मयोगी कर्म करता हुआ भी लिप्त नहीं होता । दशवैकालिक के चतुर्थ अध्ययन की दसवीं गाथा है “पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए । अन्नाणी किं काही किंवा, वा नाहिइ छेय - पावगं ॥” पहले ज्ञान फिर दया - इस प्रकार सब मुनि स्थित होते हैं। अज्ञानी क्या 'करेगा? वह कैसे जानेगा कि क्या श्रेय है और क्या पाप है ? इसी प्रकार के भाव श्रीमद्भगवद्गीता के चतुर्थ अध्ययन के अड़तीसवें श्लोक में आए हैं " न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । तत्समयं योगसंसिद्धः, कालेनात्मनि विन्दति ॥" - दशवैकालिक ४/१० - गीता ४ / ३८ इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है । उस ज्ञान को कितनेक काल से अपने आप समत्व बुद्धिरूप योग के द्वारा अच्छी प्रकार शुद्धान्तःकरण हुआ पुरुष आत्मा में अनुभव करता है। दशवैकालिक के पाँचवें अध्ययन के द्वितीय उद्देशक की चौथी गाथा है Jain Education International "कालेण निक्खमे भिक्खू, कालेण य पडिक्कमे । अकालं च विवज्जेत्ता, काले कालं समायरे ॥” भिक्षु समय पर भिक्षा के लिए निकले और समय पर लौट आए। अकाल को वर्जकर जो कार्य जिस समय करने का हो, उसे उसी समय करे । इस गाथा की निम्न से तुलना करें "काले निक्खमणा साधु, अकाले नहि निक्खम्म, - दशवैकालिक ५/२/४ For Private & Personal Use Only निक्खमो। नाकाले साधु एककंपि बहूजनो ॥" - कौशिक जातक २२६ www.jainelibrary.org
SR No.002996
Book TitleMulsutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year2000
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size16 MB
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