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दशवैकालिकसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन * १७५ *
"कहं चरे कहं चिट्टे, कहमासे कहं सए।
कहं भुंजतो भासंतो, पावकम्मं न बंधई॥" -दशवैकालिक ४/७ कैसे चले ? कैसे खड़ा हो? कैसे बैठे ? कैसे सोए ? कैसे खाए ? कैसे बोले? जिससे पापकर्म का बन्ध न हो।
श्रीमद्भगवद्गीता में स्थितप्रज्ञ के विषय में पूछा गया है। उपरोक्त गाथा की इस श्लोक से तुलना कीजिए
"स्थितप्रज्ञस्य का भाषा, समाधिस्थस्य केशव ! स्थितधीः किं प्रभाषेत, किमासीत ब्रजेत किम्॥"
__–श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ५४ हे केशव ! समाधि में स्थित स्थितप्रज्ञ के क्या लक्षण हैं ? और स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है ? कैसे बैठता है? कैसे चलता है ? दशवैकालिक के चतुर्थ अध्ययन की आठवीं गाथा है
“जयं चरे जयं चिढ़े, जयमासे जयं सए।
जयं भुंजन्तो भासंतो, पावकम्मं न बंधई॥" -दशवैकालिक ४/८ जो यतना से चलता है, यतना से ठहरता है और यतना से सोता है, यतना से भोजन करता है, यतना से भाषण करता है, वह पापकर्म का बंधन नहीं करता। इतिवृत्तक में भी यही स्वर प्रतिध्वनित हुआ है
“यतं चरे यतं तितु, यतं अच्छे यतं सये।
यतं सम्मिअये भिक्खू, यतमेनं पसारए॥" -इतिवुत्तक १२ दशवैकालिक के चतुर्थ अध्ययन की नौवीं गाथा इस प्रकार है
“सव्वभूयप्पभूयस्स, सम्म भुयाई पासओ।
पिहियासवस्स दंतस्स, पावकम्मं न बंधई॥" -दशवैकालिक ४/९ जो सब जीवों को आत्मवत् मानता है, जो सब जीवों को सम्यक् दृष्टि से देखता है, जो आस्रव का निरोध कर चुका है और जो दान्त है, उसे पापकर्म का बन्धन नहीं होता।
इस गाथा की तुलना गीता के निम्न श्लोक से की जा सकती है
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