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* १७४ * मूलसूत्र : एक परिशीलन
"धूवणेति वमणे य, वत्थीकम्म विरेयणे।
अंजणे दंतवणे य, गायब्भंग विभूसराणे॥" -दशवैकालिक ३/९ धूम्रपान की नलिका रखना, रोग की संभावना से बचने के लिए, रूप-बल आदि को बनाए रखने के लिए वमन करना, वस्तिकर्म (अपान मार्ग से तेल आदि चढ़ाना), विरेचन करना, आँखों में अंजन आँजना, दाँतों को दतौन से घिसना, शरीर में तेल आदि की मालिश, शरीर को आभूषणादि से अलंकृत करना आदि श्रमण के लिए वर्ण्य हैं।
"अअनाभ्यानोन्मर्दस्त्र्यवलेखामिषं मधु।।
स्रग्गन्धलेपालंकारांस्त्यजेयुर्ये धृतव्रताः॥” -गीता ७/१२/१२ जो ब्रह्मचर्य का व्रत धारण करें, उन्हें चाहिये कि वे सुरमा या तेल न लगावें। उबटन न मलें। स्त्रियों के चित्र न बनावें। माँस और मद्य से कोई सम्बन्ध न रक्खें। फूलों के हार, इत्र-फुलेल, चन्दन और आभूषणों का त्याग कर दें। यह विधान ब्रह्मचारी के लिए है।
दशवैकालिक के तीसरे अध्ययन की बारहवीं गाथा और मनुस्मृति के छठे अध्ययन के तेवीसवें श्लोक की समानता देखिए
“आयावयंति गिम्हेसु, हेमंतेसु अवाउडा। वासासु पडिसंलीणा, संजया सुसमाहिया॥"
-दशवैकालिक ३/१२ सुसमाहित निर्ग्रन्थ ग्रीष्म में सूर्य की आतापना लेते हैं, हेमन्त में खुले बदन रहते हैं और वर्षा में प्रतिसंलीन होते हैं-एक स्थान में रहते हैं।
"ग्रीष्म पचतापास्तु, स्याद्वर्षास्वभावकाशिकः। आर्द्रवासास्तु हेमन्ते, क्रमशो वर्धयंस्तपः॥"
-मनुस्मृति, अध्ययन ६, श्लोक २३ ग्रीष्म में पंचाग्नि से तपे, वर्षा में खुले मैदान में रहे और हेमन्त में भीगे वस्त्र पहनकर क्रमशः तपस्या की वृद्धि करे। यह विधान वानप्रस्थाश्रम को धारण करने वाले साधक के लिए है।
दशवैकालिक के चतुर्थ अध्ययन की सातवीं गाथा है
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